पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१४८

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ध्वनि और ध्वनि-विकार १२३ प्रकार की संस्थानीय ध्वनियाँ अवश्य व्यवहृत होती हैं। जैसे अँगरेजी में हh श्वास-ध्वनि है; उसका नादमय उच्चारण भी हो सकता है। पर होता नहीं है.-बोलनेवाले h का नादमय उच्चारण नहीं करते । इसी प्रकार हिंदी अथवा संस्कृत में ह' नाद है। उसका श्वासमय उच्चारण हो सकता है पर होता नहीं । इसी प्रकार 'म' और 'ल' अँगरेजी, संस्कृत और हिंदी तीनों में नादमय उच्चरित होते हैं पर यदि कोई चाहे तो उनका श्वासमय उच्चारण कर सकता है । इस प्रकार के उच्चारण की पहचान अपने कंठ-पिटक के बाह्यभाग पर अँगुली रखकर स और ज वर्गों का क्रम से उच्चारण करने से सहज ही हो जाती है। 'स' में कोई कंपन नहीं होता पर ज में स्पष्ट कंपन का अनुभव होता है। व्यंजनों का विचार दो प्रकार से हो सकता है.-(१) उनके उच्चारणो. पयोगी अवयवों के अनुसार और (२) उनके उच्चारण की रीति और ढंग के अनुसार । यदि उच्चारणोपयोगी अवयवों के अनुसार विचार करें तो व्यंजनों के आठ मुख्य भेद किए जा सकते हैं--काकल्य, कंठ्य, मूर्धन्य, तालव्य, बर्त्य, दंत्य, ओष्ठ्य और जिह्वामूलीय । (१) काकल्य अथवा उरस्य उस ध्वनि को कहते हैं जो काकल स्थान से उत्पन्न हो; जैसे हिंदी 'ह' और अँगरेजी h (२) कन्य ध्वनि अर्थात् कंठ से उत्पन्न ध्वनि । कंठ से यहाँ तालु के उस अंतिम कोमल भाग का अर्थ लिया जाता है जिसे अँगरेजी में Soft palate अथवा Veiurn कहते हैं । जब जिह्वा कोमल तालु का स्पर्श करती है तब कंठ्य-ध्वनि का उच्चारण होता है; जैसे-क, ख । (३) मूर्धन्य--कठोर ताल के पिछले भाग और जिह्वा से उच्चरित वर्ण; जैसे----, ठ, प आदि । अँगरेजी में मूर्धन्य ध्वनियाँ होती ही नहीं। (४) तालव्य अर्थात् कठोर तालु और जिह्वोपाय से उच्चरित नि; जैसे-अंगरेजी j अथवा हिंदी च, छ, ज । (५) वर्त्य अर्थात् तालु के अंतिम भाग, ऊपरी मसूढों और जिह्वानीक से उच्चरित वर्ण; जैसे-'न' अथवा 'ह'। दंतमूल के ऊपर जो उभरा हुआ स्थान रहता है उसे वर्क्स कहते हैं।