पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२१७

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. भाषा-विज्ञान अर्थ का वाचक देख पड़ता है और दूसरे ऐसे साधक अक्षर उसमें जुड़े हुए हैं जो उसके लिंग, वचन, पुरुष आदि के भेदों को दिखाते हुए उनका वाक्य के अन्य शब्दों से संबंध प्रकट करते हैं। इन दूसरे प्रकार के गौण अंशों को ही हम रूप-मात्र अथवा साधक अंश कहते हैं। रूप-मात्र सदा शब्द के साधक अंश अथवा प्रत्यय नहीं होते, उनका पृथक् अस्तित्व संस्कृत और ग्रीक जैसी विभक्ति-संपन्न भाषा में भी पाया जाता है। किसी संस्कृत वाक्य के रूप-मात्र का पृथक अंत में इति जोड़ देने से यह अर्थ निकलने लगता अस्तित्व है कि वह वाक्य किसी दूसरी क्रिया का कर्म है वह किसी का कथन अथवा उद्धरण है। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह रूप-मात्र शब्द अथवा वाक्य में कई ढंग से आ सकता है कभी स्वतंत्र शब्द बनकर, कभी शब्दांश अथवा प्रत्यय बनकर, कभी आगम अथवा विभक्ति बनकर । कार्य की दृष्टि से ये सब एक ही जाति में गिने जाते हैं। पर इनमें भेद करना आवश्यक होता है (१) कुछ ऐसे रूप-मात्र होते हैं जो वाक्य के अर्थ-मात्रों से जुड़े हुए मालूम पड़ते हैं अर्थात् वे अपनी प्रकृति से भिन्न किए जा सकते हैं पर ( २) कुछ रूप-मात्र ऐसे होते हैं जो अर्थमात्र के बोधक अक्षरों में से ही उत्पन्न होते हैं अर्थात् वे अपनी प्रकृति' से भिन्न नहीं किए जा सकते । संस्कृत का दातारम्' पहले प्रकार का और अँगरेजी का 'Feet' दूसरे प्रकार का उदाहरण है। दा +४+ अम्, इस प्रकार वातु, प्रत्यय और विभक्ति का विश्लेपण हो जाता है पर (१) यदि एक सविभक्तिक शब्द की दृष्टि से देखा जाय तो प्रकृति को अर्थ- मात्र (Semanteme) और प्रत्यय को रूप-मात्र (Morphe कह सकते हैं। यहां प्रकृति में पाणिनि के धातु और प्रातिपदिक दोनों का अंतर्माव कर लिया जाता है, परंतु सब भापाएँ सविभक्तिक नहीं होती अतः सदा प्रत्यय और रूप-मात्र को पर्याय समझना भूल होगी।