पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२१९

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१९४ भाषा-विज्ञान समान अनेक ऐसी भाषाएँ हैं जिनमें शब्दक्रम सर्वथा स्थिर रहता है। सविभक्तिक भाषाएँ जब व्यवहित और विभक्तिहीन हो जाती हैं तब उनमें कारक का ज्ञान प्राय: पूर्वसर्ग, परसर्ग, उपपद आदि साधन-शब्दों द्वारा अथवा शब्दक्रम-द्वारा होता है। इस प्रकार हमारी समीक्षा का . फल यह है कि रूपमात्र के तीन मुख्य भेद किए जा सकते हैं । (१) पहले वर्ग में प्रत्यय, विभक्ति, आगम, उपसर्ग, धिकरण, साधन-शब्द (पूर्वसर्ग, रूप-मात्र के तीन मुख्य भेद पर-सर्ग, आदि) द्वित्व आदि आते हैं। (२) दूसरे वर्ग में ऐसे रूपमात्र आते हैं जो शब्द की प्रकृति से भिन्न नहीं किए जा सकते जैसे अपश्रुति (अंतर्विभक्ति), स्वर और स्वराभाव । (३) तीसरे वर्ग में स्थान अथवा शब्द-क्रम आता है। अब यदि हम अर्थ-मात्र और रूप-मात्र के परस्पर संबंध का विचार करें तो हम भाषाओं के दो भेद कर सकते हैं-(१) कुछ ऐसी भाषाएँ हैं जिनमें अर्थ-मात्र और रूप-मात्र सर्वथा पृथक नहीं किए जा सकते?--एक ही शब्द में अर्थ और रूप दोनों का ज्ञान होता है और (२) दूसरी ऐसी भाषाएँ होती हैं जिनमें रूपमात्रों का स्वतंत्र अस्तित्व पाया जाता है। पहले प्रकार की अर्थात् बद्ध रूप- अर्थ-मात्र और मानवाली भापाओं का उदाहरण प्राचीन भारो- रूप-मात्र का संबंध पीय तथा सेमेटिक भाषाएँ हैं और दूसरे प्रकार की अर्थात् मुक्त रूपमात्रवाली भाषाओं में चीनी, तुर्की आदि आती हैं। यदि अधिक सूक्ष्म विवेचन करें तो हम एक वर्ग उन भाषाओं का भी (१) यद्यपि कुछ भाषाओं में रूप-मात्र स्वतंत्र देखे जाते हैं पर व्यवहार वे बिलकुल यंगु होते हैं। उनकी आँख-उनको द्योतकता तभी सार्थक होती है जब अंधा अर्थ-मात्र उसे अपने कंधे का सहारा देता है। इस प्रकार रूप- मात्र और अर्थ मात्र में वही 'पंग्बंध न्याय लगता है जो सांख्य के प्रकृति- पुरुष में हैं । देखो प्रकृति (Nature) और प्रत्यय (ज्ञान)। ये नाम भी अन्वर्थ हैं।