पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२३६

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रूप-विचार २१३ होता है । पर इन तीनों का किसी एक ही संज्ञा में विद्यमान होना आवश्यक नहीं है । भारोपीय परिवार की प्राय: सभी प्राचीन भाषाओं में पुल्लिग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग-ये तीन लिंग पाए जाते हैं। पर लिंग-निर्णय के लिए किसी भापा में कोई निश्चित नियम नहीं हैं । कुछ नामों का लिंग नैसर्गिक है । अर्थात् वे पुरुष वा स्त्री नाम होने के कारण पुल्लिंग वा स्त्रीलिंग माने जाते हैं। पर कुछ नाम ऐसे हैं जिनका नैसर्गिक लिंग निश्चित नहीं है। ऐसे नामों को नपुंनक लिंग देना उचित होता। पर सर्वत्र यह नियम नहीं लगता। ऐसे शब्दों के लिंग को हम कृत्रिम लिंग कह सकते हैं । अतएव नामों के अर्थों और उनके लिंगों में कोई विशेष संबंध नहीं जान पड़ता । यूनानी और लैटिन भाषाओं में वृक्ष के लिये जितने नाम हैं सब स्त्रीलिंग हैं । इसके लिये कोई विशेप कारण नहीं बताया जा सकता। इसी प्रकार संस्कृत में एक अर्थ के बोधक दार, कलत्र और स्त्री शब्द भिन्न भिन्न लिंगों के वाचक हैं । उनका नैसर्गिक लिंग स्त्रीलिंग है पर दार शब्द पुल्लिंग और कलत्र स्त्रीलिंग माना जाता है हिंदी में कलत्र का नैसर्गिक लिंग ही स्वीकृत होता है। देवता शब्द संस्कृत व्याकरण में स्त्रीलिंग माना जाता है। पर उससे बोध पुरुप ही का होता है । संस्कृत में प्रायः शब्दांत के विचार से लिंग-निर्णय होता है जिसका विवेचन पाणिनि के लिंगानुशासन में किया गया है। संस्कृत के अकारांत तथा यूनानी और लैटिन के ओकारांत नामों के कर्ता एकवचन में यदि विसर्ग (स्) लगा रहता है तो वह प्राय: पुल्लिग होता है । जैसे देवः, रामः, पुरुष: (संस्कृत); ओइकस, डोमस् (यूनानी), विकस ( लैटिन ) इत्यादि । पर इकारांत और उकारांत शब्दों के कर्ता एकवचन में विसर्ग की स्थिति यह घोपित करती है कि वह शब्द स्त्रीलिंग अथवा पुल्लिंग है। जैसे कविः मुनिः ( पु०); मतिः, गतिः ( स्त्री० ); साधु:, भानुः ( पु०) रेणु (स्त्री)। परंतु विसर्ग की अनुपस्थिति नपुंसकत्व प्रकट करती है। जैसे वारि, दधि.