पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२९

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१२ भापा-विज्ञान साहित्य से भी भाषा-विज्ञान का कम घनिष्ठ संबंध नहीं है। भाषा-विज्ञान संबंधी अधिकांश नियमों और सिद्धांतों की रचना • भाषा-विज्ञान और साहित्य साहित्य के ही सहारे होती है, क्योंकि भाषा और रूप-परिवर्तन का ज्ञान करानेवाली समस्त सामग्री साहित्य में रक्षित रहती है। यदि साहित्य इन सब बातों को रक्षित न रखे तो भाषा-विज्ञान का कार्य कठिन हो आय । (साहित्य संपन्न भाषाएँ साहित्य - द्वारा रक्षित होकर अमर हो सकती हैं। ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययन तो तुलनात्मक भाषाओं का ही हो सकता है। जो बोलियाँ साहित्य-हीन हैं, जिनके अतीत का हमें कुछ भी ज्ञान नहीं, उनके इतिहास की चर्चा कैसे हो सकती है ? यदि हमारे पास हमारे देश का क्रमवद्ध प्राचीन साहित्य न हो तो हमारा भाषा- विज्ञान कुछ रह ही न जाय। भिन्न शब्दों और उनके रूपों में क्या और कैसे परिवर्तन हुए, इसका ज्ञान केवल साहित्य से ही हो सकता है। आजकल जो भाषा का अध्ययन इतना समृद्धिशाली हो रहा है वह संस्कृत के ही ज्ञान का फल है इसी की कृपा से शब्दों के रूप और अर्थ का इतिहास इतना सरल और रोचक हो गया है । भापा-विज्ञान के ज्ञाता के लिये ऐसे साहित्य और भापा का अध्ययन भी सुगम हो जाता है जो अत्यंत प्राचीन हो अथवा जिससे उसका कभी किसी प्रकार का संघर्ष न रहा हो। भाषा-विज्ञान के विद्यार्थी के लिये वे भापाएँ सहज और सरल हो जाती हैं । हिन्दी-भाषा के विकास के जिज्ञासु को हिंदी की पूर्वज अपभ्रंश, प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाओं के साहित्य से परिचय प्राप्त करना पड़ता है और वह एक भापा की अपेक्षा अनेक भाषाओं का- कोविद स्वयं हो जाता है तथा अनेक साहित्यों से उसका परिचय हो जाता है । एक और विज्ञान है जो भापा-विज्ञान का प्रधान आधार है। वह मानव-विज्ञान है जिसमें इस विषय का विवेचन होता है कि मनुष्य ने अपनी प्राकृतिक या आरंभिक अवस्था से किस प्रकार उन्नति करके अपनी वर्तमान उन्नत और सभ्य अवस्था प्राप्त की है। मनुष्यों में 7