पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२९०

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अर्थ-विचार २५९ शब्द-शक्ति में न हो पाता । शब्द तीन प्रकार के होते हैं-वाचक, लक्षक तथा व्यंजक । मुख्य और प्रसिद्ध अर्थ को सीधे सीधे कहनेवाला शब्द वाचक कहलाता है। लक्षक अथवा लाक्षणिक शब्द वात को लखा भर देता है, अभिप्रेत अर्थ को लक्षित मात्र करता है; और व्यंजक शब्द (मुख्य अथवा लक्ष्य अर्थ के अतिरिक्त) एक तीसरी बात की व्यंजना करता है। उससे प्रकरण, देश, काल आदि के अनुसार एक अनोखी धनि निकलती है। उदाहरणार्थ यह मेरा घर है-इस वाक्य में घर शब्द वाचक है, अपने प्रसिद्ध अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पर साग घर खेल देखने गया है-इस वाक्य में 'घर' उसमें रहनेवालों का लक्षक है अर्थात् यहाँ घर शब्द लाक्षणिक है। और यदि कोई अपने ऑफिसर मित्र से बात करते करते कह उठता है, यह घर है, खुलकर बातें करो। तब 'घर' कहने से यह ध्वनि निकलती है कि यह ऑफिस नहीं है। यहाँ घर शब्द व्यंजक है। इन सभी प्रकार के शब्दों का अपने अपने अर्थ से एक संबंध रहता है। उसी संबंध के वल से प्रत्येक शब्द अपने अपने अर्थ का वोध कराता है । विना संबंध का शब्द अर्थहीन शब्द-शक्ति का स्वरूप होता है उसमें किसी भी अर्थ के बोध कराने को शक्ति नहीं रहती। संबंध उसे अर्थवान् बनाता है, उसमें शक्ति का संचार करता है। संबंध का शक्ति से ही शब्द इस अर्थमय जगत् का शासन करता है, लेोकेच्छा का संकेत पाकर चाहे जिस अर्थ को अपना लेता है, चाहे जिस अर्थ को छोड़ देता है। इसी संबंध-शक्ति के घटने- बढ़ने से उसके अर्थ की हास-वृद्धि होती है। इसी संबंध के भाव अथवा अभाव से उसका जन्म अथवा मरण होता है। अर्थात् संबंध ही शब्द की शक्ति है, संबंध ही शब्द का प्राण है। इसी से शब्दतत्त्व के जानकारों ने कहा है 'शब्दार्थ संबंधः शक्तिः' अर्थात् शब्द और अर्थ के संबंध का नाम शक्ति है। शब्द और अर्थ के इस संबंध को किसी किसी प्राचार्य ने 'वृत्ति और किस किसी ने व्यापार' नाम दिया है, इससे शब्दार्थ-स्वरूप के