पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२९६

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२६५ अर्थ-विचार ज्ञान कैसे होता है ? संकेत कैसे बनता है । संकेत से ग्राह्य क्या है ? संकेत किनमें होता है अर्थात् संकेत-विपय क्या है--संकेतित अर्थ का स्वरूप क्या है ? ---इत्यादि प्रश्नों पर विचार करना आवश्यक है। पहले दो प्रश्नों पर विचार हो चुका है। 'संकेत' समय संकेत वा स्वरूप को कहते हैं । इस शब्द से इस अर्थ का बोध होना चाहिए---इस अर्थ के लिये इस शब्द का प्रयोग करना चाहिए-ऐसा 'समय' ही संकेत कहलाता है। इस संकेत का ज्ञान प्रधानतया व्यव. संकेत का ग्राहक हार से होता है। अन्य संकेत के ग्राहक व्यवहार के रूपान्तर मात्र हैं। शब्द नित्य है। शब्द की शक्ति नित्य है; पर उस शक्ति का ग्राहक ( अर्थात् ज्ञान करानेवाला) संकेत . अनित्य है। उसे लोकेच्छा बनाती बिगाड़ती है। यहाँ संकेत का कती लोकेच्छा व्यक्तिगत इच्छा का नाम नहीं है किंतु उससे सर्वसाधारण की इच्छा का अभिप्राय है शन तो न जाने कब से चला आ रहा है और न जाने कब तक चलेगा। वह अनादि है, अनंत है और इसी से नित्य भी है। केवल संकेत- निर्भरण करना प्रपोक्ता (लोक ) के हाथ में है। शब्द सदा किसी न किसी रूप में रहता है; जब लोग जैसा संकेत बना लेते हैं वैसा ही (संकेतित) अर्थ उस शब्द से भासने लगता है। विश्व में कहीं न कहीं अर्थ उलझा पड़ा रहता है; जब लोग संकेत को शब्द की सेवा में भेजते हैं, शब्द उसकी सहायता से अर्थ को सुलझाकर प्रकाश में ला देता है ! लोगों को अर्थ-बोध होने लगता है। अर्थ-वोध वास्तव में होता है शब्दार्थ संबंध के ज्ञान से---शब्द-शक्ति के ज्ञान से; पर संकेत ही उस संबंध का परिचायक होता है-उस शक्ति का ज्ञान कराता है, अत: संकेत्त का महत्व पहले आँखों के सामने आता है । संकेत होता भी है अर्ध-बोध का सहकारी कारण । इस प्रकार मीमांसकों के अनुसार लोकेच्छा संकेत बनाती है। लोक व्यवहार से संकेत-ग्रह होता है। संकेत द्वारा शक्ति-ग्रह होता है और शक्ति द्वारा अर्थ-ग्रह अर्थात् शाब्द-योध होता है। पर व्यावहारिक शब्द को वे भी नैयायिकों की भाँति अनित्य