पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३००

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अर्थ-विचार २६९ अवश्य होना चाहिए । शब्द लक्षणा से उसी अर्थ का बोध करा सकता है जिसका उसके प्रधान और प्रसिद्ध अर्थ से कुछ न कुछ संसर्ग हो। लक्षणा के लिए तीसरी आवश्यक बात यह है कि रूढ़ि अथवा प्रयोजन उसका निमित्त होना चाहिए । इन तीनों हेतुओं में से एक के भी प्रभाव में लक्षणा का व्यापार असंभव हो जाता है। विना प्रयोजन अथवा रूढ़ि के कोई शब्द दूसरे अर्थ की ओर जायगा ही क्यों ? और योग अर्थात् संबंध तो लक्षणा का प्राण है। संबंध लक्षणा का दूसरा नाम भी है। पर कभी कभी शब्द का मुख्या-वोध नहीं होता तो भी शब्द दूसरे अर्थ का बोध कराने लगता है। जैसे एक लड़के ने संध्या को सिनेमा आने का निश्चय कर लिया है। जब वह कहता है, "संध्या हो गई" तब वह 'संध्या' से सिनेमा जाने का समय सूचित करता है। यहाँ 'संध्या' का मुख्यार्थ भी बना रहता है और उससे एक भिन्न अर्थ भी निकल आता है। ऐसे शब्दों में लक्षणा नहीं मानी जाती; क्योंकि यहाँ मुख्या-बोधवाला हेतु विद्यमान भाषा में और विशेषतः साहित्यिक भाषा में लक्षणा के न जाने कितने रूप देखने को मिलते हैं। आधुनिक अतिशय के विवेवकों ने उनका बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है। लक्षणा का सामान्य वर्गीकरण भापा की अर्थवृद्धि लक्षणा से ही अधिक होती है। अत: लक्षणा के अनेक भेद हो सकते हैं। पर सामान्य दृष्टि से लक्षणा के चार भेद किए जा सकते हैं। कभी कभी श०. अपने मुख्यार्थ को बिलकुल छोड़ देता है, केवल लक्ष्यार्थ का बोध कराता है। शब्द के इन व्यापार को लक्षणलक्षणा कहते हैं कभी कभी शम अपना अर्थ भी काए रखता है, उसे छोड़ता नहीं और साथ ही दूसरे अर्थ का भी लक्षित करने लगता है, अर्थात् दूसरे अर्थ का अपने में उपादार कर लेता है। ऐसे शब्द में उपादान लक्षणा होती है। कभी कभी एक शब्द के अर्थ पर दूसरे शब्द के अर्थ का आरोप किया जाता है। आरोप सहित होने के कारण ऐसी लक्षणा सारोपा कहलाती