पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३०३

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भापा-विज्ञान पड़ता है। अत: सब में गौणी लक्षणा है। आरोप-विपय और आरोप्यमाण दोनों का स्पष्ट उल्लेख होने से लक्षणा सारोपा है। अद्भुत एक अनूपम बाग । जुगल कमल पर गज क्रीडत है, तापर सिंह करत अनुराग ॥ हरि पर सरवर सर पर गिरिवर, तापर फूले कंज पराग । रुचिर कपोत चसे ता ऊपर, ता ऊपर (४) गौणी साध्य- अमृतफल लाग॥ फल पर पहुप, पुहुप पर वसाना लक्षणा पल्लव, तोपर सुक पिक मृगमद काग। खंजन धनुष चंद्रमा ऊपर, ता ऊपर एक मनिधर नाग ।। इस एक ही पद में साध्यवसाना के अनेक उदाहरण मिल जाते हैं । राधा के अंग अंग का सौंदर्य-वर्णन.कवि ने उपमानों द्वारा ही कर दिया है। उपमानों में उपमेयों का अध्यवसान ( तादात्म्य ) हो गया है। यही साध्यवसाना लक्षणा रूपकातिशयोक्ति अलंकार के मूल में रहती है। इसी लक्षणा का प्रयोग कवि की उक्तियों में ही अधिक देख पड़ता है। इसी से यहाँ काव्य से उदाहरण लेना ही समीचीन जान पड़ा। (१) दवा मेरा जीवन है। (२) धृत आयु है। (३) दूध ही मेरा बल है। (४) पिरत सुख भी दुःख है। (५) शुद्धा सापा (५) यह ग्रंथ रघुवंश है । (६) वह ब्राह्मण लक्षण इन सब उदाहरणों में आरोप प्रत्यक्ष देख पड़ रहा है। पर आरोप का निमित्त संबंध सादृश्य नहीं है। दवा पर जीवन का आरोप हुका है क्योंकि दोनों में कार्य-कारण संबंध है। इसी प्रकार घृत और दूध पर आयु और वैल का आरोप जन्य-जनक संबंध से हुआ है । अविरत सुख भी दुःख का कारण होता है इससे सुख पर दुःख का आरोप किया गया है। ग्रंथ में रघुवंश का वर्णन है, इसलिये यहाँ भी आरोप का निमित्त सादृश्य नहीं है । ब्राह्मण तात्कर्म्य संबंध से बढ़ई माना गया है, इससे गुण द्वारा यहाँ सादृश्य-संबंध नहीं माना जा सकता। इस प्रकार सभी में आरोप का कारण सादृश्य-संबंध न होने लक्षणा मानी जाती है। पूरा बढ़ई है। शुद्धा सारांपा