पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३०६

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अर्थ-विचार २७५ जाता है। कभी सामर्थ्य ही अर्थ-निर्णायक हो जाती है। 'मधु से मत्त कोकिल' कहने से 'मधु' का अर्थ 'वसंत' निश्चित हो जाता है। 'मधु' के अन्य अर्थ भी होते हैं पर कोकिल को मत्त करने की सामर्थ्य वसंत में ही होती है । औचित्य के अनुसार भी शब्द का विशेष अर्थ निश्चित हो जाता है। 'एक' शब्द संख्या और परिमारण दोनों का बाचक होता है पर 'वेद का एक परिचय' में एक का संख्यावाचक अर्थ ठीक नहीं चैटता, अत: यहाँ एक का 'श्रल्प अर्थ लेना चाहिए । शब्द का अर्थ निर्णय करने में देश और कान का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। जो शब्द वैदिक काल में एक अर्थ में सढ़ था वही आज दूसरे अर्थ में प्रयुक्त होता है। जो 'धाई' शब्द दक्षिण भारत में कुलीन महिला का बोध कराता है वही उत्तर भारत में प्राय: वारांगना का बोध कराता है। व्यक्ति अर्थात् लिंग-भेद से भी अर्थ निर्णय कभी कभी हो जाता है। 'बुधि छल बल करि राखिहौं पति तेरी नव बाल-यहाँ 'पति' का अर्थ 'लाज' है । यदि उसका प्रयोग पुस्लिग में हुआ होता तो अर्थ दूसरा होता । वैदिक संस्कृत जैसी सस्वर भाषाओं में स्वर भी अर्थ-निर्णायक होता है । इन चौदह हेतुओं के अतिरिक्त अभिनय आदि भी शब्द के विशेष अर्थ के ज्ञान में साधक होते हैं। इस प्रकार किसी न किसी हेतु के वश होकर जब शब्द एक ही अर्थ में नियमित हो जाता है तब भी यदि उस (शब्द) से कोई भिन्न अर्थ निकले तो उस अथे का कारण अभिधामूला व्यंजना को समझना चाहिए । इस अर्थ का हेतु अविधा नहीं हो सकती। वह तो पहले से ही एक अर्थ में नियंत्रित हो चुकी है। उदाहरणार्थ- चिरजीवौ जोरी, जुरै क्यों न सनेह गंभीर। को घटि, ए वृपभानुजा, वे हलघर के चीर ।। बिहारी के इस दोहे में 'कृपभानुजा का अर्थ वृषभानु की लड़की राधा' और 'हलधर के वीर' का हलधारी बलराम का भाई (कृष्ण' है। प्रकरण में यही अर्थ ठीक बैठता है अर्थात् प्रकरण ने वाच्यार्थ निश्चित कर दिया है। इस दोहे में इन शब्दों का कोई दूसरा मुख्यार्थ हो ही