पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३१०

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अर्थ-विचार उपर्युक्त इन सभी बातों का विचार कर आचार्यों ने प्रार्थी व्यंजना अर्थ के उस व्यापार को माना है जो वक्ता, बोधव्य (श्रोता) काकु, वाक्य, वाच्य, अर्थ, अन्य सन्निधि, प्रस्ताव, देश, काल आदि के वैशिष्ट्य (अर्थात् विशेषता) के कारण ममज्ञ प्रतिभाशाली सहृदय व्यक्ति को दूसरे अर्थ की अर्थात् (अभिवा और लक्षणा द्वारा न जाने हुए) व्यंग्यार्थ की प्रतीति कराता है। वक्ता, श्रोता (वोधव्य) और प्रकरण का अर्थ ऊपर स्पष्ट हो चुका है। काकु स्वर-विकार को कहते हैं। स्वर का अर्थ यहाँ वैदिक पद-स्वर नहीं है। स्वर का सामान्य अर्थ 'आवाज' अथवा धनि ही यहाँ अभिप्रेत है। एक ही वाक्य का स्वर बदल बदलकर पढ़ने से अर्थ दूसरा दूसरा हो जाया करता है। मैं दोपी हूँ। साधारण स्वर से कहने पर यह वाक्य साधारण अर्थ देता है; पर थोड़े सुर से 'मैं पर थोड़ा बल देकर पढ़ने से इसका उलटा अर्थ निकलता है। उसी वाक्य से निरपराध होने की व्यंजना टपकती है। यही काकु सिद्ध व्यंजना कहलाती है। इसी प्रकार चाक्यचैशिष्ट्य , वाच्यार्थ वैशिष्ट्य, किसी दूसरे का सामीप्य, प्रस्ताव अर्थात् प्रकरण और देश-काल आदि का वैशिष्ट्य भी श्रार्थी व्यंजना का हेतु होता है। इन हेतुओं के अनुसार पहले गिनाए हुए तीन भेदों के अनेक भेद हो सकते हैं; जैसे, वक्त- वैशिष्ट्य से प्रयुक्त वाच्यसंभवा को (जिसका उदाहरण 'संध्या हो गई...' में आ चुका है) वाच्य-संभवा-बक्त-वैशिष्ट्य-प्रयुक्ता कह सकते हैं। फिर बोधव्य से होनेवाली को वाच्य संभवा-बोधव्य-वैशिष्ट्य-प्रयुक्ता कहेंगे। इसी प्रकार और और वैशिष्ट्यों से अन्य भेद हो जायेंगे, पर प्रधान भेद तीन होते हैं। क्योंकि प्रार्थी व्यंजना का आधार-स्वरूप अर्थ तीन प्रकार का होता है। प्रार्थी व्यंजना के संबंध में एक बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिएं। इसका व्यापार प्रधानत: अर्थनिष्ठ होता है, पर शब्द सदा सहकारी कारण रहता है। प्रार्थी व्यंजना को प्रतीत करानेवाला अर्थ । स्वयं शब्द के द्वारा अभिहित, लक्षित अथवा व्यंजित होता है। अतः