पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/४०

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- भाषा और भापरण २३ का क्षेत्र बोली से विस्तृत होता है। एक प्रांत अथवा उपमांत की बोल- चाल तथा साहित्यिक रचना की भापा 'विभाषा! कहलाती है। इसे अँगरेजी में 'डायलेक्ट'( Dialect) कहते हैं। हिंदी के कई लेखक विभाषा को 'उपभाषा', 'बोली' अथवा 'प्रांतीय भापा' भी कहते हैं। कई विभाषाओं में व्यवहृत होनेवाली एक शिष्ट परिगृहीत विभाषा ही भाषा [ राष्ट्रीय भाषा अथवा टकसाली भापा] ( Language or koine) कहलाती है। यह भापा विभाषाओं पर भी अपना प्रभाव डालती है; और कभी कभी तो उसका समूल उच्छेद भी कर देती है, पर सदा ऐसा नहीं होता। विभाषाएँ अपने रूप और स्वभाव की पूरी रक्षा करती हुई, अपनी भापा रानी को उचित कर दिया करती और जब कभी राष्ट्र में कोई आंदोलन उठता है और भापा छिन्न- भिन्न होने लगती है, विभाषाएँ फिर अपने अपने प्रांत में स्वतंत्र हो जाती हैं। विभाषाओं का अपने प्रांत में जन्मसिद्ध सा अधिकार होता है। पर भापा तो किसी राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक अथवा धार्मिक आंदोलन के द्वारा ही इतना बड़ा पद पाती है। किसी समय भारत में अनेक ऐसी बोलियाँ और विभायाएँ प्रचलित थी जिनका साहित्यिक रूप ऋग्वेद की भाषा में सुरक्षित है। इन्हीं कथित विभापाओं में से एक को मध्यप्रदेश के विद्वानों ने संस्कृत बनाकर राष्ट्रभाषा का पद दे दिया था। कुछ दिनों तक इस भाषा का आर्यावर्त में अखंड राज्य रहा, पर विदेशियों के आगमन राष्ट्र-भाषा तथा चौद्ध धर्म के उत्थान से संस्कृत का साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया । फिर उसकी जगह शौरसेनी, मागधी, अर्धमागधी, महाराष्ट्री, पैशाची, अपभ्रंश आदि विभाषाओं ने सिर उठाया और सबसे पहले मागधी विभापा ने उपदेशकों और पीछे शासकों के सहारे 'मापा' ही नहीं, उत्तरी भारत भर की राष्ट्रभाषा बनने का उद्योग किया। इसका साहित्यिक रूप त्रिपिटकों और पाली में मिलता है। इसी प्रकार शौरसेनी प्राकृत और अपभ्रंश ने भी उत्तरी भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित किया था। अपभ्रंश को भापा का पद देनेवाला आभीर