पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/५३

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४० भाषा-विज्ञान भी बढ़ गया । इस प्रकार पहले भाषा की कुछ ध्वनियाँ 'स्वात्तःसुखाय' अथवा स्वात्माभिव्यंजनाय उत्पन्न होती हैं पर उनको भाषण का रूप देनेवाली मनुष्य की समाज-प्रिय प्रकृति है । वह एकाकी रह नहीं सकता। अकेले उसका मन ही नहीं लगता । वह साथी चाहता है। उनसे व्यवहार करने की चेष्टा में ही वह भाषण की कला को विकिसत करता है। भाषा को सुरक्षित रखता है। भाषा की उत्पत्ति चाहे व्यक्तियों में आप से आप हो गई हो; पर भाषण की उत्पत्ति तो समाज में ही हो सकती है। इस आदि-मानव-समाज में शब्द और अर्थ का संबंध इतना काल्प- निक और धुंधला (दूर का) था कि उसे यदृच्छा संबंध ही मानना चाहिए । इसी बात को भारतीय भापा-वैज्ञानिकों के ढंग से कहें तो प्रत्येक शब्द चाहे जिस अर्थ का बोध करा सकता है। सर्वे ( शब्दा:) सर्वार्थवाचकाः । एक शब्द में इतनी शक्ति है कि वह किसी भी अर्थ ( = वस्तु ) का बोध करा सकता है । अव यह लोकेच्छा पर निर्भर है। वह उसे जितना चाहे 'अर्थ दे। इसी अर्थ में यह कहा जाता है कि लोकेच्छा शक्ति शब्दार्थ-संबंध की कर्जी और नियामिका है। किस शब्द से किस नियत अर्थ का बोध होना चाहिए इस संकेत को लोग ही बनाते हैं । यही भाषा की सांकेतिक अवस्था है। पर यहाँ यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि इस अवस्था में भी लोग सभा में इकट्ठे होकर भापा पर शासन नहीं करते। समाज की परिस्थिति और आवश्यकता भाषा से अपने इच्छानुकूल काम करवा लेती है। ऐसे सामाजिक संगठन की कल्पना प्रारंभिक अवस्थाओं में नहीं हो सकती। यह बहुत पीछे के उन्नत युग की बात है कि वैयाकरणों और कोपकारों ने बैठकर भापा का शासन अथ। अनुशासन किया । यह तो भापा के यौवन की बात है। इसके पूर्व ही भापा इतनी सांके- तिक और पारंपरिक हो गई थी कि शब्द और अर्थ का संबंध समाज बच्चों और अन्य अनभिज्ञों को परंपरा द्वारा अर्थात् प्राप्त व्यक्तियों से ही सीखना पड़ता है। वह भाषा अब स्वयंप्रकाश नहीं रह गई है।