पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१०६

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वली की हिंदी जब सनम को ख़याल बारा हुआ, तालिब नश:-ए फरारा हुआ। फोन उश्शाक देख हर जानिय, नाज़नी साहने दिमाग हुआ। रश्क सों तुम लवों की सुररात्री के, जिगर लाल: दार दाग हुआ। दिले उशाक क्यों न हो रोशन, जब खयाले सनम चिराग़ हुआ। ऐ 'वली गुल बंदन को बाग में देख. दिल सद' वर्ग बारा वारा हुया ।। --कुल्लियात नं०५८ शाह हातिम ने बली को अपना उस्ताद मान लिया और फारसी तथा अरबी के आधार पर 'दरवार की शाही जवान को, जो उस समय बोलचाल में थी, पकड़ लिया। उसमें से भाषा तथा हिंदीपन को दूर किया । जो बचा उस पर फारसी-अरबी का मुलम्मा चढ़ाया और उसका नाम यथार्थ ही उर्दू की जवान' रखा, जो शारंभ में 'उर्दू-ए-मुअल्ला' के पाक नाम से चलती रही और फिर घिस घिसा कर 'उर्दू रह गई। हातिम उर्दू के आदि आचार्य तो हुए, पर वे 'उर्दू के वाबा श्रादम' न कहला यह उपाधि वली (औरंगाबादी ) को ही मिली। वहीं आज उर्दू के बाबा प्राइम माने जाते हैं। उन्हीं के प्रयत्न से उनकी रेखता' हिंदी से फारसी वन चली और वन-सँवर कर 'उदू के रूप में देश में प्रतिष्ठित हुई।