पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१२५

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भाषा का प्रश्न १२० के लिये 'लाहौर', 'गजनी' या 'मुल्तान' जाने की जरूरत नहीं, घर बैठे उसका पता लगाया जा सकता है, और साफ साफ बताया जा सकता है कि जो दिल्ली में उर्दू-ए-मुअला या उर्दू की जवान थी.वही लखनऊ में पहुँचकर 'उर्दू' वन गई और उर्दू-ए- मुअल्ला से हल्की होकर लखनऊ की मजलिस में मचलने लगी। मसहफी और इंशा में उसके लिये जो मुहफिली दंगल हुआ था उसमें इंशा ने मसहफी को जबान पकड़कर पूछा था- मुश्फिक कड़ी कमान का कड़रीन बालिए, चिल्ला के मुफ्त तीर मलामत न खाइए । उर्दू की वाली है यह ? भला खाइए कसम, इस बात पर अब आप ही मसहम उठाइए । कहने का तात्पर्य यह है कि सहूलियत के लिये उर्दू-ए-मुअल्ला की जगह उर्दू का प्रचलन हुआ और लोग सुभीते के लिये जवान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला को जवान-ए-उर्दू कहने लगे। 'जबान उद' तब तक जारी रहा जब तक उर्दू उर्दू की जवान समझी जाती थी। शीघ्र ही वह समय भी आ गया कि उर्दू की जवान. का उर्दू की. बोली से विल्कुल नाता टूट गया और वह स्वतंत्र एक बनावटी बोली या मजलिसी जवान बन गई- उसका नाम केवल उर्दू' करार पाया। यह वही उर्दू ज़बान है जो उर्दू की जबान पर भी हावी हो गई है और आप से बरह- मन लिखाना चाहती है, ब्राह्मण बाम्हन या बाभन नहीं; क्योंकि पहला संस्कृत और तब जाके दूसरा गँवारू है।