पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१३३

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भाषा का प्रस खुली और देखा कि उर्दू मुल्की जवान हरगिज नहीं है। वह दरबार और बड़े बड़े मुसलमानी शहरों में बरती जानेवाली बनावटी जवान है। निदान उनको कालेज के मुंशियों से बार बार कहना पड़ा कि बोलचाल या अपनी जवान में लिखो। उन शब्दों का प्रयोग करो जो जनता के परिचित शब्द है। फिर भी मुशियों पर उर्दू की सनक सवार रही और 'अशअश' कराने के लिये लिखने लगे। एक साहब का हौसला है: ला मुझको जामे अरग़वानी, कि जिससे तै हो हातिम की कहानी । कहें सुनकर उसे अरबाब उर्दू, कि है यह गोहरे नायाब उर्दू ।। लिखने को तो इसलिये कहा गया था कि उसे पढ़कर सरकारी साहय लोग देश की वाणी को अनसुनी न कर दे। जनता के सुख-दुख को सीधे समझ लें और सरकार (जो उस वक्त कंपनी के रूप में थी) के हित को उसके सामने आसानी से रख सके। पर उदू के विधाताओं ने किया इसके ठीक उलटे। नायाब उदलिखने लगे। तिस पर भी तुर्रा यह कि आजकल के भोले-भाले राष्ट्रभक्त इसी को राष्ट्र-भापा क्यों नहीं मान लेते। यह तो बाबा आदम के जमाने से न सही, गिलक्रिस्ट के जमाने से तो राष्ट्र-भाषा है ? फिर इसके खिलाफ आवाज क्यों उठाई जाती है ? यह जुल्म कैसा? ठीक है। पर जरा मेहरबानी करके मौलाना हक के इस दावे को गलत तो कर दीजिए--- १-आराइश मुहफिल, प्रारंभ। २-'उदू' ( वही ) जनवरी सन् १६३३, १०. १४ ॥