पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१६६

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स्वामी दयानद और उर्दू थी और जनता की लोक भाषा हिंदी थी। यदि इसे और स्पष्ट करना चाहे तो आसानी से कह सकते हैं कि संस्कृत हिदियों की फ़ारसी' और हिंदी हिंदियों की 'उर्दू थी अर्थात् जिस तरह दरवारी या सरकारी लोगों में फारसी और उद का प्रचलन था, उसी तरह जनता या लोक में संस्कृत और हिंदी का बोलबाला था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने यह अच्छी तरह देख लिया कि जिन लोगों से उन्हें काम लेना है और जो सचमुच अधिकार में पड़े हुए हैं उनके उद्धार के लिये उन्हीं की व्यवहार की भाषा से काम लेना उचित है। इतना विचार उटना था कि उन्होंने संकल्प कर लिया कि राष्ट्र. भापा हिंदी का अभ्यास करो और उसी को अपने व्याख्यानों तथा विचारों की माध्यम बनाओ। स्वामीजी का हिंदी के मैदान में थाना था कि हिंदी-भाषा में नवीन जीवन आ गया। वह पनप उठी। यारों ने देखा कि स्वामीजी संस्कृत के पंडित है, वैदिक धर्म के प्रचारक हैं, भारत के प्राचीन गौरव का गान करते हैं --संक्षेप में हिंदी के उपासक और आर्य-भाषा के स्तंभ हैं, इसलिये यह हल्ला करना आवश्यक है कि उन्होंने अरबी- फारसी शब्दों का बहिष्कार किया। उनका अनुमान ठीक निकला। बहुत-से विज्ञ भी उनके चकमे में आ गए और यह निश्चित कर लिया कि सचमुच स्वामीजी ने फारसी-अरवी शब्दों को निकाल फेंका है। इतना भी नहीं सोचा कि जो निकाले और फेंके हुए लोगों को भी शुद्ध करके अपने समाज में सम्मिलित कर लेता है वह अपने यहाँ आए हुए शब्दों को क्यों