पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१७२

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स्वामी दयानद और उर्दू निकलता है वह कागजों या कागदों में नहीं है। इसी लिये' लिखते है. "यहाँ हमारे पास सिवाय एक रजपर के दूसरा कागजात कुछ भी नहीं है। इसे स्वामीजी की कचहरी की भाषा समझना चाहिए। कचहरी चा हिसाब-किताब की भाषा में फारसी-अरवी के शब्दों की भरमार है। स्वामीजी ने उनका ठीक उसी प्रकार प्रयोग किया है, जिस प्रकार अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दों का। उदाहरण के लिये उनका यह कथन लीजिए- दिल के रुपैया की पहुँच की रसीद न होने और रसीदों के चिल न होने से जालसाजी उसकी विदित हो जाएगी। और उसकी चिट्ठियों से निश्चित है कि कलकत्ते का हिसाब चुकता कर दिया, तो बिल का होना और रसीदों का न होना सिवाय चोरी के क्या कह सकते हैं।" स्वामीजी उर्दू से अनभिज्ञ थे। उस समय उर्दू का राज्य था। वह सरकारी जवान थी। स्वासीजी. को भी. उर्दू में खतकिताबत करनी पड़ती थी। जो लोग हिंदी-उर्दू में केवल शब्दकोष का अतर समझते हैं उन्हें उर्दू की तरकीब और हिंदी की पदयोजना पर ध्यान देना चाहिए। इन्हीं स्वामी दयानद १ -पत्र और विज्ञापन, तृ० भाग पृ० ३५ ।ऍग्लो मोरियंटल प्रेम, लाहौर. -बही पृ०४७