पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१८७

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भाषा का प्रश्न १८२ के रूप में न लेकर केवल शाहजहानाबाद के एक खास टुकड़े के अर्थ में ले रहे हैं जिसकी जवान को 'उर्दू की जवान' कहते हैं। 'उर्दू की जवान' के विषय में मीर अमन का खुद दावा है कि उनकी 'जवान' 'सनद' है। उनका कहना है :- "सचः है बादशाहत के इकवाल से शहर की रौनक थी। एकबारगी तबाही पड़ी। रईस वहाँ के मैं कहीं और तुम कहीं होकर जहाँ जिसके सींग समाए वहाँ निकल गए । जिस मुल्क में पहुंचे वहाँ के आदमियों के साथ-संगत से बातचीत में फर्क आया और बहुत ऐसे हैं कि दस-पाँच बरस किसी सबब से दिल्ली में गए और रहे। वे भी कहाँ तक बोल सकेंगे। कहीं न कहीं चूक ही जावेंगे। और जो शख्स सब अाफतें सहकर दिल्ली का रोड़ा होकर रहा और दस-पाँच पुश्तें उसी शहर में गुजरी और उसने दरबार-उमरावों के और मेले-ठेले उर्स छड़ियाँ, सैर व तमाशा और कूचःगरदी उस शहर की मुद्दत तलक की होगी और वहाँ से निकलने के बाद अपनी जबान को लिहाज में रखा होगा उसका बोलना अलबत्तः ठीक है ।" (वहीं पृ०५।) मतलब यह कि मीर अमन की जवान हर तरह से 'मुस्तनद' और 'फसीह' होने का कुदरती हक रखती है। उनके 'नजीब' और 'फसीह होने में किसी को शक नहीं। सीर अमन की ज़बान के बारे में बहुतों' की वही राय है जो स्वयं उन्होंने इस प्रकार प्रकट की है। उनकी इस मुस्तनद १-सर सैयद अहमदखाँ से लेकर डाक्टर मौलाना अब्दुल हक सक. जिस किसी का अध्ययन कीजिए, आपको स्पष्ट अवगत होगा कि वे