पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१९

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आपा का प्रश्न संपन्नता के कारण सार्वभौम राष्ट्रभाषा बन गई। . जैनों ने भी उसे अपना कर उसके राष्ट्रपद की प्रतिष्टा की। संस्कृत को पूरा पूरा पता था कि सरल और बोधगम्य होने पर भी वह जनता की सहज या जन्मभाषा नहीं है। शिष्यों के समाज में प्रतिष्ठित होने के कारण उसकी मर्यादा स्थिर हो गई है। वह जनता के बीच स्वच्छंद विचर नहीं सकती। उस पर शब्दानुशासकों की कड़ी और अत्यंत पैनी दृष्टि है।. निदान उसका कर्तव्य हुआ कि लोकवाणी का आदर करे, प्राकृत भाषा को महत्त्व दे। उसकी उन्नति में अपनी उन्नति समझे। देशकाल के प्रभाव से प्राकृत भाषा के अनेक भेद हो गए थे। लक्ष्मीधर (१६वीं शती ई.) ने इसका संकेत इस प्रकार कर दिया है :- "त्रिविधा प्राकृती भाषा भवेद्दश्या च तत्समा । तद्भवा च भवेद्दश्या तत्र लक्षणमंतरा।। तत्समा संस्कृतसमा नेया संस्कृतवर्मना । तद्भवा संस्कृतभवा सिद्धा साध्येति सा द्विधा ।। द्विविधायाश्च सिद्धयर्थ प्राकृतं लक्षणं मतम् । (षडभाषाचंद्रिका ११४७,४८) 'तत्समा' प्राकृतभाषा के विवेचन से व्यक्त होगा कि वैया- करणों ने व्यर्थ ही संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति नहीं कहा है, प्रत्युत बहुत कुछ सोच-समझकर यह सूत्र निकाला है कि प्राकृत भाषा की प्रकृति वास्तव में संस्कृत ही है-वही संस्कृत जिसको