पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राष्ट्रसाषा की परंपरा वानरवर हनूमान ने 'मानुषी संस्कृत' कहा है, कुछ द्विजाति- संस्कृत नहीं। संस्कृत वाणी में कुछ ऐसे रूप थे जो द्विजों और मनुष्यों में समान रूप से प्रचलित थे। आचार्यों ने भाषा के उन्हीं रूपों की एकता के कारण तत्समा प्राकृत का उल्लेख किया और स्पष्ट कह दिया कि उसके अलग व्याकरण की आवश्यकता नहीं, वह सदैव संस्कृत के साथ है। रही तद्भवा' की वात । उसके विवेचन में विचार करना होगा कि,तत्समा में किन विकारों के आ जाने से कौन सी तद्भवा बन जाती है और वह किस देश में वोली जाती है, किसी तद्भवा के अभ्यास के लिये किन रूपों में परिवर्तन कर दिया जाता है और प्रसंग आने पर किस नियम से संस्कृत को प्राकृत बना दिया जाता है--संक्षेप में, संस्कृत किस प्रकार प्राकृत बन जाती है। देश्या' के संबंध में ध्यान देने की बात यह है कि वैयाकरणों ने अनार्यों की मूल देश्या या ठेठ देशी भापा का विचार नहीं किया है बल्कि आर्यो की तवा के देशगत रूप को देशभाषा का नाम दिया है और उसे उक्त प्रांत की भाषा कहा है। वैयाकरणों की मागधी का अर्थ मगध देश की मूलभाया नहीं बल्कि मगध में प्रचलित तद्भवा भाषा है, अर्थात् बहु आर्य भापा है जो आर्यों के साथ मगध में फैल गई और देशकाल के प्रभाव से कुछ से कुछ और ही हो गई। उसके रूप में बहुत से विकार उत्पन्न हो गए। . प्रकृत विवेचन के आधार पर अब हम आसानी से समझ सकते हैं कि "प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्