पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/४१

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भापा का प्रश and भ्रश तथा पैशाची की सत्ता को अस्वीकार करे तो इसके लिये हमारे पास प्रमाण क्या है ? हम किस प्रकार उनकी सत्ता को सिद्ध कर सकते हैं? जो हो, इतना तो निर्विवाद है कि भरत मुनि ने उकारबहुला भापा का विधान 'हिमवसिंधुसौवीर' के समुपाशित जनों में किया है और शूद्रक ने मृच्छकटिक में एक ढक्क भाषा को स्थान दिया है। ढक्क के विषय में विवाद करना व्यर्थ है। वस्तुतः वह 'टक्क' का रूपांतर है। टक्क जनपद में कभी अपभ्रंश का व्यवहार था। इसका पता एक प्राचीन पद्य से स्वतः चल जाता है। भापा-क्षेत्र के विचार से यह पद्य बड़े महत्त्व का है- "गौडाद्याः संस्कृतस्थाः परिचितरुचय: प्राइते लाटदेश्या: सापभ्रंशप्रयोगाः सकलमरुभुवष्टक्कमादानकाश्च । आवन्त्याः पारिवात्राः सह दशपुरभूतभाषां भजन्ते यो मध्ये मध्यदेश निवसति स कविः सर्वभाषानियएणः ।।" प्रस्तुत पद्य के प्रणेता का पता नहीं। राजशेखर ने कृपा कर इसे काव्यमीमांसा (९१० ई०) में उद्धृत कर दिया है। इससे स्पष्ट अवगत होता है कि यह कम से कम राजशेखर से पुराना है। इसमें इस बात का प्रत्यक्ष निर्देश है कि 'सकलमरु- भुवष्टक्कभादानक' के प्रांत में अपभ्रंश का प्रयोग चालू था। उन्हीं जनपदों की प्राकृत में अपभ्रंश का प्रवेश था। राजशेखर ने कवि-समाज की पंक्ति में अपभ्रंश कवियों को पश्चिम में स्थान दिया है और परिचारक वर्ग के लिये अपभ्रंश का ज्ञान आवश्यक बताया है। उनका कहना है-