७६ भूगोल [वर्ष१६ इसी वर्ष, एक महिलाश्रम रीवा-सरकार द्वारा ही खोला १-महामन्त्री=मुख्यमन्त्री गया है। २-महामात्य = दीवान या प्राइम मिनिस्टर ऐतिहासिक वृत्तान्त ३-महासामन्त = मुख्य योद्धा या सेनापति ० जितनी जमीन पर इस समय रीषा राज्य फैला हुआ है ४-महापुरोहित =धर्माचार्य प्राचीन काल में ठीक उतने ही भू-भाग पर किसी एक राज्य ५-महाप्रतिकार राजमहल का मुख्य अधिकारी के होने का पता नहीं चलता। उस समय इस राज्य की ६-महाक्षपटलिक = लेखक-विभाग का मुख्य अधिकारी भूमि बड़े-बड़े साम्राज्यों में सम्मिलित थी; जैसे, अशोक ७-महाप्रमात्र न्यायाधीश (चीफ जस्टिस ) साम्राज्य गुप्त-साम्राज्य, हर्ष-साम्राज्य और चेदि-राज्य । ८-महाश्व सानध-रिसाले का मुख्य अधिकारी अर्थात् इतने भू-भाग पर बाधेलों मे ही इस राज्य की ६-महाभाण्डागरिक-मुख्य खजांची स्थापमा की है। तेरहवीं शताब्दी में बाघेल लोग गुजरात से १०-महाध्यक्ष-बड़ा एकाउण्टेण्ट यहाँ आये तब से आज ७०० वर्षों तक बराबर इस प्रान्त पर इसके अतिरिक्त प्रत्येक विभाग में लेखक रहते थे। उसी वंश का राज्य है। उदयपुर को छोड़ कर और बहुत जैसे धर्म-लेखी अर्थात् धर्म विभाग का लेखक । प्रत्येक काम कम राज-वंश इतने प्राचीन हैं। खूब निश्चय और स्पष्टता पूर्वक होता था। गाँवों की सीमा बालों से पहले विक्रम की दशवीं से तेरहवीं शताब्दी इतनी स्पष्ट रहती थी कि जहाँ प्राकृतिक सीमा नहीं होती तक पड़ोस के चेदि या डाहल-राज्य में इस राज्य को भूमि थी वहाँ खाई खोद कर सीमा बनायी जाती थी। कागज- सम्मिलित थी। राजधानी इस की जबलपुर के पास त्रिपुरी पत्र बहुत स्पष्ट लिखे जाते थे और अधिकार का बहुत सूक्ष्म थी । जहाँ इस वर्ष भारतीय राष्ट्रीय काङ्ग्रेस का अधि- विवेचन किया जाता था। गावों के दान-पत्रों में जल, थल वेशन हुआ था । कलचुरि राजवन्श का राज्य था। इस श्राम, महुआ, गड्ढा, चुङ्गी, नमक की खानि, गोचर भूमि, राज्य में इमके कई ताम्र-पत्र और शिला-लेख मिले हैं तथा जङ्गल, कछार, पेड़ बाग-बगीचा और घास तक का दिया इनके दो शिवालय और दो मठों के खण्डहर अभी जाना लिखा जाता था; पर शासन-प्रबन्ध नहीं दिया जाता था। वह वर्तमान समय की भाँति सुबन्ध के लिये राजाओं शिला-लेखों से मालूम होता है कि दशवीं से तेरहवीं के हाथ में ही रहता था। ये दान-पत्र महाराज, महारानी, शताब्दी तक इन की तेरह पीढ़ियों ने इस प्रान्त पर राज्य युवराज, राज्य के सभी विभाग के मुख्य कर्मचारी और जो किया । इनकी बोच की तीन पीढ़ियों, गांगेयदेव १०६० गाँव दान में दिया जाता था उसको प्रजा के सामने लिखे वि०), कर्णदेव ( १०६६ वि० ) और यशःकर्णदेव तो जाते थे। महारानियों को परदा नहीं था वे भी शासन का समय समय पर उत्तर में नेपाल, पूर्व में विहार, दक्षिण में एक अङ्ग मानी जाती थीं आने-जाने के लिये नदियों कर्णाटक और पश्चिम में गुजरात तक विजय किया था। इन में पुल, बनों में सड़कें और पहाड़ों में घाटियाँ बनवाई जाती में भी कर्णदेव तो कर्ण ही की भाँति प्रबल प्रतापी हो गया थीं। प्रजा के लिये औषधालय और पाठशालाएँ भी है । इसे यहाँ ( रीवा राज्य में ) करनडहरिया कहते हैं । होती थीं। ये लोग शैव थे और शैव साधुओं को बड़ी-बड़ी जागीरें शिल्प और साहित्य भी अच्छी अवस्था में था। देते थे। ये साधु आजकल के गद्दीधर महन्तों की भाँति बड़े इमारतें इतनी अच्छी और मजबूत बनती थीं कि आज सैकड़ों बड़े मठाधीश थे और अपनी जागीरों का प्रबन्ध स्वयं करते वर्ष बाद भी वैसी ही बनी हुई हैं। मूर्तियाँ तो उस समय थे। शत्रुओं से युद्ध करते थे। प्रजा के लिए नदियों में पुल, बहुत बढ़ के बनती थीं। पत्थर पर खुदे लेखों के अक्षरों की पहाड़ों में घाटियाँ और बनों में सड़के बनवाते थे। सब स्वच्छता और सुन्दरता का उतना ही ध्यान रक्खा जाता जातियों के लिये सदावर्त ( अन्नसत्र ), औषधालय और था जितना आजकल अच्छे टाइपों में रक्खा जाता है । लेखों विद्यालय बनवाते थे। इन राजाओं का शासन-प्रबन्ध बहुत से मालूम होता है कि उस समय संस्कृत साहित्य भी ऊँचे दर्जे का था । उसमें निम्नलिखित दश मुख्य कर्मचारी अच्छी अवस्था में था। प्रशस्ति-निर्माण के लिये बड़े बड़े होते थे :- योग्य पंडितों को राजा लोग आश्रय देते थे। वर्तमान हैं।
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