रीवा राज्य अङ्क १-४] कलचुरि लोग कट्टर शैव थे, पर अन्य धर्मवालों के कहा जाता है कि कर्णदेव का विवाह रतनपुर ( मध्य-) साथ अन्याय नहीं करते थे। इनकी धर्मशालाओं में सब प्रान्त ) के हैहयवंशी ( कलचुरी ) राजा सोमदत्त की कन्या धर्मवालों को सदावर्त मिलता था। ब्राह्मण और साधुओं से हुआ और दहेज में वान्धवगढ़ किला प्राप्त हुआ; किन्तु को दान में गाँव दिये जाते थे। इनका अन्तिम राजा रतनपुर के इतिहास में राजा सोमदत्त का पता नहीं है। त्रैलोक्यवद्धन १२६८ वि० में था। इसी समय के लगभग अस्तु; जो हो व्याघ्रदेव से लेकर आज कल ३३ वीं पीढ़ी बाघेलों ने उनकी राजधानी त्रिपुरी पर चढ़ाई कर के उनके बाघेलों की रीवा राज्य पर शासन कर रही है। उनके राज्य की समाप्ति कर दो। कलचुरियों के कमजोर होने पर समय की मुख्य ऐतिहासिक घटनाएँ निम्नलिखित हैं। यहाँ भर, लोधी, गोंड, वेणुवंशी, बालन्द और सेंगर १६ वें महाराज भीर सिंह या भैद्यदेव ( १५२७-५२ जातियों ने जोर पकड़ा । इनके छोटे छोटे राज्य बन गये। वि० ) ने दिल्ली के बादशाह सिकन्दर लोदी के विरोधी केवल बान्धवगढ़ के आस-पास कलचुरियों का अधिकार जौनपुर के नवाब हुसेनशाह शी को शरण देने के कारण रह गया। सिकन्दर लोदी ने बान्धवगढ़ पर चढ़ाई किया। पर बान्धवगढ़ बाघेलों का समय तक नहीं पहुँचा । भीरसिंह के पुत्र शालिवाहन ( १५५२- ५७ वि० ) के समय में लोदी ने महाराज से लड़की देने का गुजरात के सोलंकियों की एक शाखा व्याघ्रपल्लो गाँव में रहने के कारण व्याघ्रपल्लीय अर्थात् व्याघ्रपल्ली वाली कही प्रस्ताव किया । महाराज ने, यह जानते हुए भी कि प्रस्ताव के अस्वीकार का परिणाम घोर युद्ध और आपत्ति होगी, जाने लगी। बाघेल या बघेल इसी व्याघ्रपल्लीय शब्द का तुरन्त अस्वीकार कर दिया। इस से लोदी ने बान्धवगढ़ पर रूपान्तर है। उस समय गुजरात के व्याघ्रपल्ली और धोल्का फिर आक्रमण किया । इस बार वह बान्धवगढ़ तक पहुँच गया (धवलगढ़ ) के इलाके इनके अधिकार में थे। इन लोगों ने पर उसे तोड़ नहीं सका । शालिवाहन के पुत्र वीरसिंह देव मुसलमानों के आक्रमणों का सामना कर के उन्हें परास्त ( १५५७- ६७ वि० ) के समय में गढ़ा-मण्डला की प्रसिद्ध किया। इनके राज्यकाल में गुजरात में साहित्य, व्यापार- रानी दुर्गावती का श्वसुर अमानदास, जो पीछे संग्रामशाह के धर्म आदि को अच्छी उन्नति हुई। इनका चौथा राजा नाम से प्रसिद्ध हुआ, अपने पिता की हत्या करके राजा बन वीरधवल ( १२६२ वि.) बहुत योग्य शासक और गया । महाराज वीरसिंहदेव इससे रुष्ट होकर गढ़ा पर चढ़ाई योद्धा था। करके अमानदास को खदेड़ दिया। महाराणा साँगा और कहा जाता है कि इसी वीरधवल का व्याघ्रदेव नामक बाबर के बीच फतहपुर सीकरी में जो इतिहास प्रसिद्ध युद्ध कोई पुत्र १२६० वि० के इधर-उधर इस ओर आये। हुआ था उसमें वीरसिंहदेव ने ४ हजार सवार लेकर महा- चित्रकूट के पास तरौंहा के राजा कनकदेव ने अपनी लड़की राणा की सहायता की थी। से आपका विवाह करके निस्सन्तान होने के कारण, अपना म. वीरभानु (१५६७-१६१२ वि० ) के समय छोटा राज्य भी, इन्हें दे दिया । तरौंहा का राज्य पाकर में जब हुमायूँ शेरशाह के डर से पटना की ओर से ये मड़फा (चित्रकूट के पास ) के किले में रहे । धीरे धीरे भागा हुआ कन्नौज पहुँचा तब उसकी बेगम हमीदा भूलती रघुवंशियों से गहोरा ( जिला बाँदा ) प्रान्त और लोधियों भटकती हुई महाराज वीरभानु के निकट आयी और अमरकोट से पुर्दवाँ ( कसौटा) का प्रान्त भी इन्होंने ले लिया तथा सिन्ध ) जाना चाहा । महाराज ने उसका समुचित स्वागत रीवा प्रान्त पर भी अधिकार कर लिया । इस कार्य में बाधेलों कर के अपने विश्वस्त आदमियों के साथ अमरकोट पहुँचवा को तिवारी ब्राह्मणों से बड़ी सहायता मिली। इसी से रीवा दिया। वहाँ उसके गर्भ से अकबर का जन्म हुआ। इस राज्य में अब तक तिवारियों की विशेष प्रतिष्ठा है। उपकार के बदले बेगम ने, जब अकबर बादशाह हुआ तब, व्याघ्रदेव के पाँच पुत्रों में बड़े कर्णदेव उनके उत्तरा रीवा राज्य के लिये एक लाखिराज खरीता ( अदेन अधिकार धिकारी हुए । बीच के तीन का पता नहीं है । छोटे कन्धरदेव पत्र ) दिलवाया। पुर्दवाँ ( कसौटा ) चले गये। वहाँ उनके वंशज अभी तक महाराज रामचन्द्र १६१२-१६५० वि०) ने शेरशाह शासन करते हैं। के किसी उत्तराधिकारी से बुन्देलखण्ड के कालिंजर का किला 1
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