पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/१५१

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भूतनाथ कि मेरा कोई दुश्मन यहां भा पहुंचा जो इस घाटो का हाल मच्छी तरह जानता है और उसी ने मेरे साथ ऐसा बर्ताव किया है, मगर अब मेरा तरदुद जाता रहा और यह जान कर प्रसन्नता हुई कि इसके मालिक प्राप है, मगर आप मुझे बेतरह खुटके में डाल रहे हैं जो अपना पूरा परिचय नही दत, मैं क्योंकर समझू कि आप मेरे बडे और सरपरस्त है ? साधू ०। (मुस्कुरा कर) खैर तुम अपना सरपरस्त या मददगार न भी समझोगे तो इसमे मेरी या तुम्हारी किसी की भी हानि नही है, परन्तु फिर भी मैं वादा करता हू कि बहुत जल्द एक दफे पुन तुमसे मिलू गा और तब अपना ठीक ठीक परिचय तुमको दू गा, इस समय तुम मेरो फिक्र न करो पोर अपने दुश्मनो से वेफिक्र होकर इस घाटी में रहो। यहा थोडी सी दौलत भी है जिसका पता तुम्हें मालम न होगा, चलो वह भी मै तुम्हें दे देता है, जो कि तुम्हारे काम प्रावेगी क्योंकि अब मुझे दौलत को कुछ जरूरत नहीं रही प्रार यदि मावश्यकता पडे भी तो मुझे किसी तरह की कमी नहीं है। भूत । ( प्रसन्न होकर ) केवल धन्यवाद देकर मै मापसे उऋण नही हो सकता, पाप मुझ पर वही ही कृपा कर रहे है! साधू० । इसे कृपा नहीं कहते, यह फेवल प्रेम के कारण है, अस्तु अब तुम विलम्ब न करो और शीघ्रता से चलो, जो कुछ मुझे करना है उसे जल्द निपटा करके बदरिकाश्रम की यात्रा करूगा । भूतनाथ के दिल में इस समय तरह तरह के विचार उठ रहे थे। वह न मालूम किन किन बातो को सोच रहा था मगर प्रगट में यहो जान पडता था कि वह वडो होशियारी के साथ सचेत बना हुघा खुशी ख़ुशी साघू के साथ सुरंग के अन्दर जा रहा है । जब उस चौमुहानी पर पहुंचा निसका जिक्र फई दफे हो चुका है तो भूतनाथ ने साधू से पूछा- भूत । ये वाकी के दोनो रास्ते किवर को गये है और उघर क्या है ? साधू० । इस घाटी के सापही और भी दो घाटियां है और उन्ही में जाने के लिए ये दोनों रास्ते है, मगर उन्हें मैने बहुत अच्छी तरह से बन्द कर दिया . 2