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पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/१५६

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दूसरा भाग मगर खैर कोई चिन्ता नहीं, ऐयारों के लिये यह ऐसा अनुचित नहीं है। इतना कह कर साधू ने सांप को दुम पकड लो और अपनी पूरी ताकत के साथ संचा। दो हाथ के लगभग वह दुम खिच कर पाले के बाहर निकल पाई और इसके साथ हो बगल में एक छोटा सा दर्वाजा खुना हुप्रा दिखाई दिया। भूतनाथ को लिये हुए साधू उसके अन्दर घुस गया और उसी समय वह दर्वाजा श्राप से प्राप बन्द हो गया। उस समय साधू ने भूतनाथ से कहा, "देख गदाघरसिंह, घर भी उसी तरह का नाग बना हुआ है, बाहर निकलती समय इधर से भी उसी तरह दर्वाजा खोलना पडेगा।" भतनाथ ने उसे अच्छी तरह देखा और फिर उस कोठडो को तरफ निगाह दौडाई जिसमें इस समय वह मौजूद था। उसने देखा कि वहाँ चादी के कितने ही बडे बडे देग या हण्डे रसे हुए हैं जिनका मुंह सोने के ढक्कनो से ढका हुअा है । भूतनाय ने साधू की प्राज्ञा पाकर हण्डों का मुंह खोला पौर देखा कि उन प्रकियो भरी हुई हैं। इस समय भूतनाय को खुशी का कोई ठिकाना नहीं था और उसने सोचा कि नि सन्देह ऐसे कई खजाने इस घाटी में होगे मगर उनका पता जानने के लिए साधू से इस समय जिद करना ठीक न होगा, प्रवश्य यह पुन. यहाँ प्रावेंगे पौर मुझ पर कृपा करेंगे। लोटते समय प्राशा कर भूतनाय ने अपने हाथ से यह दर्वाजा बन्द किया घोर साधू के पीछे पीछे चल कर सोह के बाहर निकल पाया । उस समय साधु ने कहा, "गदाधरसिंह अब मैं जाता हू,जब लौट कर पुन: यहा पाऊगा तो ऐसे ऐसे कई खजाने तुझे दू गा और तिलिस्म का दागेगा भी दनाऊगा मगर मैं तुझे समझाये जाता है कि इन्द्रदेव के साप दुश्मनी का ध्यान भी कभी अपने दिल में न लाइयो नहीं तो पर्वाद हो जायगा और यु.स भोगेगा, वह तुमने बहुत ज्यादा गवर्दस्त है। अच्छा प्रम में जाता हू, मेरे साय पाने की कोई जरूरत नहीं है।" इतना कह कर साधू महाराय रवाना हो गए और पाश्चर्य में भरे हए भूतनाप को उसी जगह छोड गए।