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पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/१५७

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१२१ नाथ भूतनाथ बढी देर तक खडा खडा इस बात को सोचता रहा कि यह घू महाशय कौन है भोर मुझ पर इतनी कृपा करने का सबब क्या है ? चते सोचते उसका खयाल देवदत्त ब्रह्मचारी की तरफ चला गया जिन्होने से पाला था और ऐयारी सिखा कर इस लायक बना दिया था कि किसी बजा या रईस के यहा रह कर इज्जत और हुर्मत पैदा करे । भूतनाथ सोचने लगा कि 'ताज्जुब नही यदि यह मेरे गुरु महाराज देव. दत्त ब्रह्मचारी ही हो जो बहुत दिनों से लापता हो रहे है । मुझे रणधीरसिंहजी के यही नौकर रखा देने के बाद वह यह कह कर चले गये थे कि अब मैं योगा- म्या करने के लिए उत्तराखण्ड चला जाऊंगा, तुम मुझसे मिलने के लिए उद्योग मत करना । या सम्भव है कि उनके भाई ज्ञानदत्तजी ब्रह्मचारी हो जिनको प्राय गुरुजी तारीफ किया करते थे और कहते थे कि वे एक अद्भुत तिलिस्म के दारोगा भी है । जहाँ तक मेरा खयाल है उन्हीं दोनो में से कोई न कोई जरुर है । ताज्जुब नहीं कि मैं कुछ दिनों में तिलिस्म का दारोगा घन जाऊ । अब मैं इस घाटी को कदापि न छोड़ गा और देखू गा कि किस्मत क्या दिखाती है । अव प्रभाकरसिंह को भी लाकर हसी घाटी में रखना चाहिए । मगर वास्तव मे प्राजकल मैं बडे सकट में पड़ गया है । मैं अपने मित्र इन्द्रदेव पर मिस तरह अविश्वास करूं और किस तरह भरोसा ही करू, किस तरह समझू कि जमना और सरस्वती बिना किसी की मदद के मुझसे दुश्मनी करने के लिए तैयार हो रही है ! खैर जो कुछ होगा देखा जायगा, प्रव प्रभाकरसिंह को शीघ्र इस घाटी में ले पाना चाहिए और उसके बाद इन्द्रदेव से मिलना चाहिए। उनस मुलाकात होने पर बहुत सी बातो का पता लग जायगा । मैं इन्द्रदेव के सिवाय पोर किसी से डरने वाला भी नहीं हूं।' इत्यादि तरह तरह की बातें सोचता हुआ भूतनाथ अपने दोस्तों और साथियो के पास चला गया और उनसे अपने कर्तव्य के विषय में बातचीत

  • देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति वाईसधा हिस्सा, भूतनाथ की जीवनी ।