भूतनाथ दलीपशाह अपने मर्दाने मकान में एक सुन्दर सजे हुए कमरे के बाहर दालान में चौकी के ऊपर फर्श पर बैठे हुए अपने दोस्त इन्द्रदेव से बातचीत कर रहे हैं । इस जगह से सामने का नजरबाग और उसके बाद फाटक मच्छी तरह दिखाई दे रहा है। प्राज इन्द्रदेव इनसे मिलने के लिये प्राये हुए हैं और इस समय इनके पास ही बैठे ए कई जरूरी मामलो पर सलाह पोर वातचीत कर रहे हैं। दलीप० । भाई साहब, गदाधरसिंह प्रापका दोस्त है इसलिये मैं लाचार होकर उसे अपना दोस्त मानता हू, मगर सच तो यो है कि उसके साथ रिश्तेदारी होने पर भी मैं उसे दिल से पसन्द नहीं करता। इन्द्र० । हा उसको चालचलन तो कुछ खराव जरूर है मगर आदमी बडे ही जीवट का ९ और ऐयारी का ढग भी बहुत ही अच्छा जानता है । दलीप० । इस बात को में जरूर मानता हू वल्कि जोर देकर कह सकता हूं कि अगर वह ईमानदारी के साथ काम करता हुमा रणधीरसिंहजी के यहां कायदे से बना रहता तो एक दिन ऐयारों का सिरताज गिना जाता। ईन्द्र० । ठीक है मगर उसने रणधीरसिंह का साथ छोड तो नहीं दिया। दलीप० । अव ईसे छोडना नहीं तो क्या कहते हैं ? दो दो महीने तक गायव रहना और मालिक को मुह तक नही दिखाना, क्या इसी को नौकरो कहते हैं। पाप ही कहिए कि अवको के महीने के बाद पाया था ? सिर्फ दो दिन रह कर चला गया। उससे तो उसकी स्त्री अच्छी है जो अपने मालिक अर्थात् रणधीरसिंह का साथ नहीं छोडती । इन्द्र० । ठीक है मगर उसने रणधोरसिंह के यहां अपने बदले में अपना शागिर्द रख दिया है, इसके अतिरिक्त जब रणधीरसिंहजी को उसकी जरू- रत पडती है तो उसी शागिर्द को मार्फत उसे बुलवा भेजते हैं । अभी हाल हो में देखिये उसने कैसी वहादुरी के काम क्येि । दलीप० । अजी यह तो मैं खुद कह रहा ह कि वह ऐयार परले सिरे फा है, मगर इस जगह वहस तो ईमानदारी को हो रही है ।
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