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पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/१६६

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दूसरा भाग - इशारा पाकर गुलाबसिंह एक कुर्सी पर बैठ गए और इस तरह वातवीत होने लगी- दलीप० । कहो भाई गुलाबसिंहजी, प्राज तो बहुत दिनो के बाद प्रापसे मुलाकात हुई है, सव कुशल तो है ? गुलाव० । जी कुशल तो नहीं है, और इसीलिए मुझे चुनारगढ़ से भागना पड़ा। दलीप० ० । क्या महाराज शिवदत्त की नौकरी आपने छोड दी। गुलाव० । हा मजबूर होकर मुझे ऐसा करना पड़ा, क्योंकि मैं प्रमा- करसिंह के साथ किसी तरह का बुरा बर्ताव नहीं कर सकता था। दलीप०। प्रभाकरसिंह भी तो उन्हीके यहां सेनापति का काम करते हैं ? गुलाव० । हाँ, मगर महाराज ने उनके साथ बहुत ही बुरा बर्ताव किया, उनकी स्त्री इन्दुमति पर हजरत नाशिक हो गये और बड़ी बड़ी चालबाजियो से अपने महल में बुलवा लिया, मगर जब वह किसी तरह राजी न हुई और जान देने तथा लेने पर तैयार हो गई तव लाचार उसे महल के अन्दर कैद कर रखा और प्रभाकरसिंह को मार डालने का वन्दोवस्त करने लगे जिसमे निश्चिन्त होकर इन्दुमति को काम में लावें, परन्तु प्रभाकरसिंह को इस बात का पता लग गया और वे महल में घुस कर बड़ी बहादुरी से इन्दुमति को छुडा लाये, तो मी शिवदत्त का मुकाबला नही कर सकते थे इसलिये अपनी स्त्री को साप लेकर वहां से भाग खड़े हुए। इसके बाद शिवदत्त ने उनकी गिर- फ्तारी के लिए मुझे मुकर्रर किया, मैने इसी बात को गनीमत सममा पोर फई प्रादमियों को साथ लेकर उनकी खोज में निकला । आखिर उनसे मुला- कात हो गई और तब से में उनकी ताबेदारी में रहने लगा क्योकि उनके बुजुर्गों ने जो कुछ भलाई मेरे साप की है उसे मैं भूल नहीं सकता । नौगड की सरहद के पास ही उनसे मुलाकात हुई थी और अकस्मात उसी जगह भूतनाय भी मुझसे मिल गया । मैने भूतनाप से मदद मागी और वह मदद देने के लिए तैयार होकर हम लोगो को अपने टेरे पर ले गया, मगर कई