१७ | पहिला हिस्सा |
छिपे हुए दुश्मन ने हमला किया होता तो कुछ मुह से ग्रावाज तो पाई होती या चिल्लाते तो सही ।।
गुलाव० । नही भूतनाथ ऐसा तो नही हो सकता ! प्रभाकरसिंह पर हम भागने का इलजाम तो नही लगा सकते ।
भूत० । जो तो मेरा भी नहीं चाहता कि उनके विषय में मै ऐसा कहू परंतु घटना ऐसी विचिन हो गई है कि मैं किसी तरफ अपनी राय पक्की कर नही सकता। हां इन्दुमति कदाचित् इस विषय मे कुछ कह सकती हो ।
इतना कह कर भूतनाथ ने इन्दु को तरफ देखा मगर इन्दु ने कुछ जवाव न दिया, सिर झुकाये जमीन को देखती रही, नानो इसने कुछ मुना ही नही । अवको दफे गुलाबसिंह ने उसे सम्वोधन किया जिससे वह चौकी और एकदम फूट फूट कर रोने और कहने लगो, “वस मेरे लिए दुनिया इतनी ही थी ! मालूम हो गया कि मेरी वदकिस्मतो मेरा साथ न छोडेगी। मैं व्यर्थ हो अाशा में पड़ कर दुखी हुई और उन्हे भो दु ख दिया। मेरे ही लिए उन्हें इतना कष्ट भोगना पडा और मुझी प्रभागिन के कारण उन्हे जंगल को खाक छाननी पड़ी। हाय | क्या अब मै पुन इस दुनिया में रह कर उनके दर्शन को पाशा कर सकती है ? क्यो न इसी समय अपने दुखान्त नाटक का अन्तिम पर्दा गिरा कर निश्चिन्त हो जाऊँ ?"
इत्यादि इसी ढंग की बातें करती हुई इन्दु प्रलापावस्था को लांघ कर बेहोश हो गई और जमीन पर गिर पड़ी।
गुलावसिंह गौर भूतनाथ को उसके विषय में वो चिन्ता हुई और वे लोग उसे होश में लाकर समझाने बुझाने तथा शान्त करने को चिन्ता करने लगे।
भूतनाथ का यह स्थान कुछ विचिन ढंग का था। इसमे भूतनाय को कोई कारीगरो न थी, इसे प्रकृति ही ने कुछ अनूग घोर सुदर बाया हुप्रा या । इसके विषय में अगर भूननाय की कुछ कारीगगे घी तो केवन इतनी हो कि उसने इने बोज निकाला था, जिसका रास्ता बहुत ही कठिन
भू० १-२