२७ | पहिला हिस्सा |
गरम प्रांसू गिराती रही । भोलासिंह भी चुपचाप खडा आश्चर्य के साथ उसको इस अवस्था को देखता रहा।
नकली प्रभाकरसिंह ने इन्दुमति से कुछ न कह कर भोलासिंह से कहा, "भाई भोलासिंह, भव तो मैं बिल्कुल हो थक गया हू। मेरी कमजोरी अब मुझे एक कदम भी आगे नहीं चलने देती। इन्दु से मिलने का उत्साह मुझे यहां तक साहस देकर ले आया यही गनीमत है नहीं दुश्मनो के दिए हुए जहर की बदौलत मै बिल्कुल ही कमजोर हो गया है। इत्तिफाक की वात है कि इन्दु मुझे इसी जगह मिल गई । अव मै कुछ देर तक सुस्ताए विना एक कदम भी प्रागे नही चल सकता अस्तु तुम जानो गुलावसिंह को भी खुशखबरी देकर इसी जगह बुला लायो तब तक मै भी अच्छी तरह श्राराम कर लू।"
"बहुत अच्छा !!" कह कर भोलासिंह वहां से चला गया। यहा से गुलावसिंह का डेरा सैकडो कदम की दूरी पर था। तमाम मैदान पार करने के बाद पहाडो पर चढ कर वह गुफा थी जिसमें गुलाबसिंह का डेरा था, अस्तु वहा तक जाने और पाने में घडी भर से भी ज्यादा देर लग सकती थी तथापि भोलासिंह दौडा दौडा जाकर गुलाबसिंह से मिला और उन्हें प्रभाकरसिंह के आने की खुशखबरी सुनाई। उस समय गुलावसिंह रसोई बनाने की फिक में थे मगर यह खबर सुनते ही उन्होंने सब काम छोड़ दिया और प्रभाकरसिंह से मिलने के लिए भोलासिंह के साथ चल पडे ।
जिस समय गुलाबसिंह को साथ लिए हुए भोलासिंह सुरंग के मुहाने पर पहुचा सो वहा सन्नाटा छाया हुआ था। न तो प्रभाकरसिंह दिखाई पडे योर न इन्दुमति ही नजर पाई। ऐसी अवस्था देख भोलासिंह सन्नाटे में श्रा गया और अब उसे मालूम हृया कि उसने घोसा खाया । वह घबडा कर चारो तरफ देखने के बाद यह कहता हुआ जमीन पर बैठ गया-"हाय, मैने कुरा धोखा खाया। प्रभाकरसिंह के साथ ही साथ इन्दुमति को भी हाथ से खो बैठा !"