भूतनाथ घूमते फिरते वै एक ऐसी कोठरी मे पहुंचे जिसको लम्बाई चौडाई यहीं की संव कोठरियों से ज्यादे थी। यहा चारो तरफ की दीवारों में बडी वडी आलमारिया बनी हुई थी और उन सभों के ऊपर नम्बर लगे थे। सात नम्बर को चालमारी उन्होंने किसी गुप्त रीति से खोली और उसके अन्दर चले गये । नीचे उतर जाने के लिए सीढियां बनी हुई थी भस्तु उसी रोह से प्रभाकरसिंह नीचे उतर गये और एक दालान में पहुंचे । बटुए मे से मोमबत्ती निकाल करे रोशनी को तो मालूम हुया कि यह दालान लम्बा चौडा है और यहा की जमीन में बहुत सी लोहे की नालिया बनी हुई है जी संडक का काम देने के लिए है तथा उसे पर छोटी छोटी बहुत सी गाडियां रक्खी हुई है जिन पर सिर्फ एक श्रादमी के बैठने की जगह है । दालान के चारो तरफ दीवारो मे बहुत से रास्ते बने हुए है जिनमे से होकर वे लोहे को सडक न मालूम कहा तक चली गई है। गौर से देखने पर प्रभाकरसिह को मालूम हुआ कि उन छोटी छोटी गाडियों पर पीठ की तरफ नम्वर लगे हुए है और उन नम्बरो के नीचे कुछ लिखा हुश्री भो है । प्रमाकरसिंह वंडी उत्कण्ठा से पढने लगे। एक गाडी पर लिखा हुआ था 'जमानिया दुर्ग' दूसरों पर लिखा हो था, 'खास बागे' तीसरी पर लिखा हुआ था 'चुनार विक्रमीचन्द्र' चौयी पर लिखा हुआ था 'केन्द्र', इसी तरह किसी पर 'मुकुट' किसी पर 'सूर्य' और किसी पर 'सभा- मण्डप' लिखा हुआ था, मतलब यह है कि सभी गोडियो पर कुछ न कुछ लिखा था। प्रभाकरसिंह एक गाडी के ऊपर सवार हो गए जिसकी पीठ पर 'चन्द्र' लिखा हुअा था । सवार होने के साथ हो वह गाठो चलने लगी। दालान के बाहर हो जाने पर मालूम हुआ कि वह किसी सुरग के प्रदर जा रही है। जैसे जैसे वह गाडी मागे बढती जाती थी तैसे तैसे उसकी चाल भी तेज होती जाती थी और हवा के झपेटे भी अच्छी तरह लग रहे थे, यहा तक कि उनके हाथ की मोमबत्ती बुझ गई और हवा के झपेटों से मजबूर होकर उन्होंने अपनी दोनोग्रांखें बन्द कर ली
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