पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/२९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तीसरा हिस्सा थो । दौडते दौडते वे एक ऐसे स्थान पर पहुंची जिसके आगे एक लम्बी और बहुत ऊची दीवार थी और वीच में उस पार जाने के लिए एक दर्वाजा वना हुआ था जो इस समय खुला था। इन औरतो को इतनी फुसंत कहा कि दीवार की लम्बाई चौडाई की जांच करती या दूसरी तरफ भागने की कोशिश करती ? वे सीधी उस दर्वाज के अन्दर घुस गई , खास करके इस खपाल से भी कि अगर इसके अन्दर जाकर दर्वाजा बन्द कर लेंगे तो दुश्मन से बचाव हो जायगा। उसी समय प्रभाकरसिंह भी नजदीक पहुँच गये और इन्दुमति की निगाह प्रभाकरसिंह के ऊपर जा पड़ी। प्रभाकरसिंह ने हाथ के इशारे से उन्हें रुक जाने के लिए कहा परन्तु उसी समय वह दर्वाजा बन्द हो गया जिसके अन्दर जमना सरस्वती भोर इन्दुमति घुस गई थी। प्रभाकरसिंह को यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि यह दर्वाजा खुद वन्द हो गया या इन्दुमति ने जान बूझ कर बन्द कर दिया । थोडी ही देर में प्रभाकरसिंह उस दवाजे के पास पहुचे और धक्का देकर उसे खोलना चाहा मगर दर्वाजा न सुना । प्रभाकरसिंह ने चाहा कि आगे बढ कर देखें कि यह दीवार कहाँ तक गई है परन्तु उसी समय सर- स्वती की आवाज कान में पढ़ने से वे रुक गये और ध्यान देकर सुनने लगे। यह प्रावाज उस दर्वाजे के पास दीवार के अन्दर से पा रहो यो मानो सर- स्वती किसी दूसरे श्रादमी से बातचीत कर रही है जैसा कि नीचे लिखा जाता है सरस्वती० । हाय ! यहाँ भी दुष्टों से हम लोगो का पिण्ड न छूटेगा? ये लोग इस तिलिस्म के अन्दर प्रा क्योंकर पा गये यही ताज्जुव है !! जवाव० । (जो किसो जानकार प्रादमी के मुंह से निकली हुई प्रावाज मालूम पड़ती थी ) खैर अब तो पा हो गये, अब तुम लोगों के निशाने हम नोग नहीं निकल सकते और अब तुम लोग जान वचा हो कर क्या फरोनी पयोकि प्रभाकरसिंह को निगाह में तुम लोगों को कुछ भी इज्जत न रही,