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पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/३२५

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मूतनाथ हू, अब इसी जगह चिता बना कर इसे फूक दू गा, इसके बाद तुम लोगो को यहा से ले चलूगा और किसी अच्छे ठिकाने बैठा कर प्रभाकरसिंह के पास जाऊ गा । अब ज्यादे देर तक बातचीत करना मैं मुनासिब नही सम- झता नयोकि काम बहुत करना है और समय कम है, तुम लोग मेरी मदद करो और जल्दी से लकही बटोर कर चिता बनायो। बात की बात मे चिता तैयार हो गई और नारायण ने उस ऐयार की लाश को चिता पर रख कर आग लगा दी । थोडी देर तक इन्दुमति खडी उस चिता की तरफ देखती और कुछ सोचती रही, इसके बाद नारायण से बोली, "आपके बगल में वटुमा लटक रहा है, इससे मालूम होता है कि आप भी कोई ऐयार है, अगर मेरा खयाल ठीक है तो आपके पास लिखने का सामान भी जरूर होगा ?" नारायण। हा हा, मेरे पास लिखने का सामान है, क्या तुमको चाहिए ? इन्दुमति । जी हा, कागज का एक टुकड़ा और कलम दावात चाहिए। नारायण ने अपने वटुए में से कागज का टुकड़ा और स्याही से भरी हुई एक सोने को जडाऊ कलम निकाल कर इन्दु को दी । इन्दु ने उस कागज पर कुछ लिखा और अपने प्राचल में से कपडे का एक टुकडा फाड कर उसी में उस कागज को वाव कर एक तरफ फेंक दिया। यही वह चीठी थी जो प्रभाकरसिंह को उस चिता के पास मिली थी। इन्दुमति ने उस पुर्जे में क्या लिखा है सो इस समय उसने किसी से न बताया और न किसी ने उससे पूछा ही, हा कुछ देर बाद उसने यह भेद कला और विमला पर खोल दिया। जमना सरस्वती और इन्दुमति को साथ लिए हुए नारायण वहा से रवाना हुए। वे उस तरफ नही गए जिस तरफ दीवार थी बल्कि उसके विपरीत दूसरी तरफ रवाना हुए । थोडी दूर जाने वाद उन लोगों को जगल मिला वे लोग उस जगल मे चले गये । क्रमश वह जंगल घना मिलता गया यहा तक कि लगमग दो कोस के जाते वे लोग एक ऐसी भयानक जगर में जा पहुंचे जहा वारीक वारीक सैकडो पगडण्डियां यो पोर उनमें से अपने मतलव का