पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
भूतनाथ
४२
 


इसी तरह समय बीतता गया और इन्दु की तबीयत सम्भलती गई। उसे होश में आये आज तीसरा दिन है, दर्द में भी बहुत कमी है और वह दस बीस कदम टहल भी सकती है। आज ही उसने कुछ थोड़ा बहुत भोजन भी किया है और इस फिक्र में तकिए का सहारा लगाए बैठी है कि आज किसी न किसी तरह इस बात का निश्चय जरूर करूंगी कि वास्तव में मै किसके कब्जे में हूँ।

उसकी खातिर करने वालियो में दो औरतें ऐसी थी जिन पर इन्दु को भरोसा हो गया था और जिन्हे इन्दु सब से बढ़ कर उच्च कुल की नेक और होनहार समझती थी। एक का नाम कला और दूसरी का नाम विमला था । सब से ज्यादे ये ही दोनो इन्दु के साथ रहा करती थी।

रात पहर भर से कुछ ज्यादे जा चुकी है। चिन्तानिमग्न इन्दु अपनी चारपाई पर लेटी हुई तरह तरह की बातें सोच रही थी। उसी के पास दो चारपाइयां और बिछी हुई थी जो कला और विमला के सोने के लिए थी । कला अपनी चारपाई पर नहीं बल्कि इन्दु के पास उसको चारपाई का ढासना लगाये बैठी हुई थी मगर विमला अभी तक यहाँ आई न थी। कई सायत तक सन्नाटा रहने बाद इन्दु ने बातचीत शुरू की।

इन्दु० । कला, कुछ समझ में नहीं आता कि तू मुझसे यहां का भेद क्यों छिपाती है और साफ साफ क्यो नही कहती कि यह किसका मकान है।

कला० । बहिन, मै जो तुमसे कह चुकी कि 'यह तुम्हारे दुश्मन का मकान नहीं है बल्कि तुम्हारे दोस्त का है तो फिर क्यो तरद् दुद करती हो ?

इन्दु० । तो क्या मैं अपने दोस्त का नाम नही सुन सकती ? आखिर नाम छिपाने का सबव ही क्या है

कला० । छिपाने का सबव केवल इतना ही है कि यहाँ का हाल सुन कर जितना तुम्हें आनन्द होगा उतना ही बल्कि उससे ज्यादे दुख होगा और हकीमिनजी का हुक्म है कि अभी तुम्हें कोई ऐसी बात न कही जाय जिससे रज्ज हो।