का दर्वाजा नजर आया जिस पर साधारण जंजीर चढ़ी हुई थी।
वे इस दरवाजे को देख कर चौके और चारो तरफ निगाह दौड़ा कर
सोचने लगे, " है । यह दरवाजा कैसा? मै तो बिना इरादा किए ही यका-
यक यहाँ आ पहुँचा । मालूम होता है कि यह कोई सुरंग है। मगर इसके
मुंह पर किसी तरह की हिफाजत क्यो नही है? यह दरवाजा तो एक लात
भी नहीं सह सकता ? शायद इसके अन्दर किसी तरह की रुकावट हो जैसी
कि उस सुरंग के अन्दर थी जिसकी राह से मै यहां आया था ? खैर इसके
अन्दर चल के देखना तो चाहिए कि क्या है । कदाचित् इस कैदखाने के
बाहर ही निकल जाऊँ । बेशक यह स्थान सुन्दर और सुहावना होने पर भी
मेरे लिए कैदखाना ही है। यदि इस राह से मैं बाहर निकल गया तो बड़ा
ही अच्छा होगा, मै उस इन्दु को जरूर बचा लूंगा जिसे इस आफत के
जमाने में भी मैने अपने से अलग नहीं किया था। अच्छा जो ही, मैं
इस
सुरंग के अन्दर जरूर चलूंगा मगर इस तरह निहत्थे जाना तो उचित नहीं !
पहिले बंगले के अन्दर चल कर अपनी पूरी पोशाक पहिरना ओर अपने
हरवे लगा लेना चाहिये, न मालूम इसके अन्दर चल कर कैसा मौका पड़े !
न भी मौका पड़े तो क्या ? कदाचित् इस घाटी के बाहर ही हो जाय, तो
अपने हरवे क्यो छोड़ जाय"
इस तरह सोच विचार कर प्रभाकरसिंह वहां से लौटे और तेजी के साथ बंगले के अन्दर चले गए । बात की बात में अपनी पूरी पोशाक पहिर कर और हर्वे लगा कर वे बाहर निकले और मैदान तय करके फिर उसी सुरंग के मुहाने पर पहुंचे।
दरवाजा खोलने में किसी तरह की कठिनाई न थी अतएव वे सहज ही में दरवाजा खोल उस सुरंग के अन्दर चले गए। सुरंग बहुत चोड़ी और ऊंची न थी, केवल एक आदमी खुले ढंग से उसमें चल सकता था । अगर सामने से कोई दूसरा आदमी आता हुआ मिल जाय तो बड़ी मुश्किल से दोनों एक दूसरे से निकाल कर अपनी अपनी राह ले सकते थे लम्बाई में