पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/६२

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पहिला हिस्सा
 


यह सुरंग बहुत छोटी न थी बल्कि चार साढे़ चार सौ कदम लम्बी थी। सुरंग मे पूरा अन्धकार था और साथ ही इसके वह भयानक भी मालूम होती थी मगर प्रभाकरसिंह ने इसकी कोई परवाह न की और हाथ फैलाए आगे की तरफ बढे़ चले गए। जैसे जैसे आगे जाते थे सुरंग तग होती जाती थी।

जब प्रभाकरसिंह सुरंग खतम कर चुके तो आगे रास्ता बन्द पाया लकड़ी या लोहे का कोई दर्वाजा नही लगा हुआ था जिसे बन्द कहा जाय बल्कि अनगढ़ पत्थरो ही से वह रास्ता बन्द था। प्रभाकरसिंह ने बहुत अच्छी तरह टटोलने और गौर करने पर यही निश्चय किया कि बस अब आगे जाने का रास्ता नही है, मालूम होता है कि सुरंग बनाने वालो ने इसी जगह तक बना कर काम छोड़ दिया है और यह सुरंग अधूरी रह गई है।

इस विचार पर भी प्रभाकरसिंह का दिल न जमा। उन्होंने सोचा जरूर इसमे कोई बात है और यह सुरंग व्यर्थ नही बनाई गई होगी। उन्होंने फिर अच्छी तरह धागे की तरफ टटोलना शुरू किया। मालूम होता था कि आगे छोटे बडे़ कई अनगढ़ पत्थरो का ढेर लगा हुआ है। इस बीच में दो तीन पत्थर कुछ हिलते हुए भी मालूम पड़े जिन्हे प्रभाकरसिंह ने बलपूर्वक उखाड़ना चाहा । एक पत्थर तो सहज ही में उखड़ आया और जब उन्होने उसे उठा कर अलग रक्खा तो छोटे छोटे दो छेद मालूम पडे़ जिनमें से उस पार की चीजें दिखाई दे रही थी और यह भी मालूम होता था कि अभी कुछ दिन बाकी है । अब उन्हे और भी विश्वास हो गया कि अगर इस तरह और दो तीन पत्थर अपने ठिकाने से हटा दिए जाय तो जरूर रास्ता निकल आवेगा अस्तु उन्होने फिर जोर करना शुरू किया।

तीन पत्थर और भी अपने ठिकाने से हटाए गए और अब छोटे छोटे कई सूराख दिखाई देने लगे मगर इस बात का निश्चय नहीं हुआ कि कोई दरवाजा भी निकल आवेगा।

उन सूराखों से प्रभाकरसिंह ने गौर से दूसरी तरफ देखना शुरू किया। एक बहुत ही सुन्दर घाटी नजर पड़ी और कई आदमी भी इधर उधर