पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०१ पहिला हिस्सा इस वात का इन्तजार था कि दिन बीते, अन्धेरा हो और वह लोंडी यावे । इस बीच में वारो से आठ दस लौंडिया उसके पास प्राई, उन्होंने तरह तरह को वातें की और खाने के लिए समझाया बल्कि यहाँ तक कहा कि तुम्हारे मैदान जाने और नहाने का भी सामान किया जा सकता है मगर भूतनाथ ने कुछ भी न माना वल्कि उनकी बातो का जवाब तक न दिया और वे सब को सब निराश होकर लौटती गई । दिन बीत गया सन्ध्या हुई और अन्यकार ने अपना दखल जमाना शुरू किया दो घन्टे रात जाते जाते तक निशादेवी का शून्यमय राज्य हो गया । उस कंदवाने के पास जिसमें भूतनाय वन्द था। पेडो को बहुतायत होने के कारण इतना अन्धकार था कि किसी का आना जाना दूर से मालूम नही हो सकता था। भूतनाथ जगले के सीखचा पकडे हुए खडा था कुछ सोच रहा था कि वही लौडी जिसके ऊपर भूतनाय का मोहनी मग चल चुका था और जो लालच के सुनहरे जाल में फंस चुकी थी हाथ में भूतनाथ का ऐयारी का बटुआ लिए आ पहुचो और जगले के सूरास* से हाथ वढा कर धोरे से बोली, "लो गदाधरसिंह, यह तुम्हारा वटुमा हाजिर है। इसके लिए मुझे बहुत तकनीफ उठानी पहो।" भूत० । वेशक बेशक, अब हमारा और तुम्हारा दोनो का काम चल गया । (सम्भल कर, क्योकि उसके मुंह से हमारा काम निकल गया, यह शब्द भी सुशो के गारे निकन प्राये थे जो कि वह निकालना नहीं चाहता था) मेरा काम तो सिर्फ इतना हो कि मुझे अपने कंद करने व ने का पता लग जायगा मगर तुम यव हर तरह से प्रसन्न और स्त हो जानोगी। इतना गह नार भूतनाय ने बटुआ उसके हाथ से ले लिया और कहा, "पया इसमें मेरा ना मान ज्यो का त्यो पटा हुया है ?" लोजी । वेशक ।

  • जिसे गोल कर खाने पीने की चीजें अन्दर खो जातो पी।