पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/१२७

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[ ३६ ] भूपन बाहुवली सरजा तेहि भेटिव को निरसंक पवायौं । बील के घाव गिरे अफजल्लहि ऊपर ही सिवराज निहायो। दावि यों बैठो नरिंद अरिदहि मानो मयंद गयंद पछाखो ॥ ९९ ।।। . साहि तन सिवनाहि निसा में निशाँक लियो गढ़सिंह __ सोहानी। राठिवरो को संहार भयो लरिकै सरदार गिलो इनका नाम पहले कोंडाने था; पर जब यह जिना १६४७ में शिवानी में अधिकार में बाया, व न्हाने का नाम सिंहगढ़ रख दिया। १६६५ में शिवाजी ने इसे जयहि को दे दिया। यह उदादि पदमाला के पूरबी किनारे पर था वहाँ ने पुरंपर पहाड़ी दक्षिण ( Deesan) की ओर मुड़ नदी है। यह बड़ा ही दुर्ग या; पर शिवानी को दबकर रहे वदि को देना ही पड़ा। उन् १६७० ई० को भाव वदी को गुन को इसे फिर बात लेने के लिये शिवानी के बहादुर नरदार बारवर ठानानी ने तैयारी की। इस बार पर शिवानी ने, नो किलेदार उदयमानु राठोर की दहादुरी को भली मावि वान थे, काने दरदार में पान का बौड़ा रख कर करने सरदारों से कहा था कि 'कीन ऐसा वीर है जो यह दौड़ा दावे और दयभानु से लड़कर सिंहगढ़ छंन टे?' किन की हिम्मत न पड़ी पर दानानी ने बड़ा उठाया। यह बात इनक. उसके माई नरवानी ने उड़े चमझाया कि उदयभानु दड़ा वीर हैं पर द्र ठानानी ने एक न मानो तव नरण भी उसके साथ हो लिया और दोनों भाई सेना बहिन किले पर ना टूटे। बौन नो मरहठे किले के पर पहुँच गए और तब उदयमानु को उनका पट्टा लगा। बस फिर क्या था, घोर युद्ध प्रारंभ हुश्श जिसने उदयभानु के चायी भाग निकले। नव उदयमानु ने दानानी को टुंद युद्ध के लिये ललकारा टोर बहादुरी के बोश में वानानी करने चाथियों को पोछे छेड़ अकेला ही उसने ना मिड़ा पर दुर्भाग्यवश लड़ कर मर गया। दद दो बड़े वेग तानाजी के मामा शैलर मन्य ना टूया दोर बनने चारा नेना का कान हो दमान कर दिया तया