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पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/१३४

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[ ४३ ] अक्रमातिशयोक्ति लक्षण-दोहा जहाँ हेतु अरु काज मिलि होत एक ही साथ । अक्रमातिसय-उक्ति सो कहि भूषन कविनाथ ।। ११३ ।। उदाहरण-कवित्त मनहरण उद्धत अपार तव दुंदुभी धुकार संग लंधै पारावार वाल बूंद रिपुगन के। तेरे चतुरंग के तुरंगन के रँगेरजे साथही उड़ात रजपुंज हैं परन के । दच्छिन के नाथ सिवराज ! तेरे हाथ चढ़े धनुप के साथ गढ़ कोट दुरजन के । भूपन असीसैं, तोहिं करत. कसीसैं पुनि वानन के साथ छूटै प्रान तुरकन के ॥ ११४ ॥ चंचलातिशयोक्ति लक्षण-दोहा जहाँ हेतु चरचाहि मैं काज होत ततकाल | चंचलातिसय उक्ति सो भूपन कहत रसाल ॥११५ ।। १ घोड़ों के धूल से रंग जाने से अर्थात् धावे के लिये चलने ही से। २ राज्यश्री का ढेर। ३ शत्रुओं के । इस पद में पूर्ण भयानक रस है। ४ कशिश करते ही अर्थात् वाण खींचते ही।