जो द्विजराज मैं जो रघुराम मैं जोब कह्यो बलरामहु को है । बौद्ध मैं जो अरु जो कलकी महँ विक्रम हूवे को आगे सुनो है । साहस भूमि-अधार सोई अब श्री सरजा सिवराज में सो है ।।१४२।। ___ अपरंच-कवित्त मनहरण कीरति सहित जो प्रताप सरजा मैं वर मारतंड माँझ तेज चाँदनी सो जानी मैं । सोहत उदारता औ सीलता खुमान मैं सो कंचन. मैं मृदुता सुगंधता वखानी मैं ॥ भूषन कहत सब हिंदुन को भाग फिरै चढ़ेते कुमति चकता हू को निसानी मैं । सोहत सुवेस दान कीरति सिवा मैं सोई निरखी अनूप रुचि मोतिन के पानी में ।। १४३ ॥ अन्यच्च-दोहा औरन को जो जनम है, सो याको यक रोज । औरन को जो राज सो, सिव सरजा की मौज ॥ १४४ ॥ साहिन सों रन माँडियो कीबो सुकवि निहाल । सिव सरजा को ख्याल है औरन को जंजाल ।। १४२ ।। व्यतिरेक' लक्षण-दोहा सम छविवान दुहून मैं, जहँ वरणत बढ़ि एक । भूषण कवि कोविद सवै, ताहि कहत व्यतिरेक ॥ १४६।। १ इसमें अन्य कवि प्रायः उपमेय उपमान का भी संबंध जोड़ते हैं । इनके भी उदाहरणों मे यह दात प्रस्तुत हैं। पहले उदाहरण में प्रतीप की मुख्यता हो गई है, किन्तु दूसरे में व्यतिरेक स्पष्ट है। इसके सम, अधिक और न्यून भेद भूषण ने नहीं
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