पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/१५०

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[ ५९ ] भरत' नाम भाई, नीति चारु है। भूषन भनत कुल सूर कुल भूषन हैं दासरथी सब जाके भुज भुव भारु है ॥ अरि लंक तोर जोर जाके संग बान रहें सिंधुर हैं बाँधे जाके दल को न पारु है। ते गहि कै भेंट जौन' राकस मरद जाने सरजा सिवाजी राम ही को अवतारु है ।। १६६ ॥ पुनः देखत सरूप को सिहात न मिलन काज जग जीतिबे की जामें रीति छल बल की। जाके पास आवै ताहि निधन करति बेगि भूषन भनत जाकी संगति न फल की ।। कीरति कामिनि राची सरजा सिवा की एक बस कै सकै न बस करनी सकल. १ भरत जी अथवा भरता है नाम अर्थात् नाम व्याप्त करता है। २ भाई अर्थात भ्राता अथवा रुची अर्थात् पसन्द आई। ३ दशरथजी के पुत्र अथवा सब रथी जिसके दास ( है )। ४ लंका अथवा कमर। ५ वानर अर्थात् मंदर हैं अथवा वाण रहैं । ६ सिंधु अर्थात समुद्र गाँधा रहै (सेतु बंधन) अथवा सिंधुर अर्थात् हाथो बाँधे रहें । ७ ते गहि अर्थात् उन्हें पकड़ कर अथवा तलवार ही से। ८ जीन राकस मरद जाने अर्थात् जो राक्षसों को मदना जानता है अथवा जो नर ( मनुष्य ) अकस ( शत्र) जन जानता है उसे तेगही से भेंटता है अर्थात् मार डालता है। इस कविता के अर्थ चाहे राम पक्ष में लगाइए चाहे शिवाजी पर ।