पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२२९

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[: १३८ ] काँपत रहत न गहत चित चाव हैं ॥ अथह विमल जल कालिंदी के तट केते परे युद्ध विपति के मारे उमराव हैं। नाव भरि बेगम उतारै बाँदी डोंगा भरि साहि मिसी मका उतरत दरि- याव हैं ॥ १३ ॥ किवले' के ठौर वाप बादसाह साहिजहाँ ताको कैद कियो मानो मक्के आगि लाई है। बड़ो भाई दारा वाको पकरि के कैद कियो मेहेरहु नाहिं वाको जायो सगो भाई है। बंधु तौ मुरादबक्स बादि चूक करिवे को बीच लै कुरान खुदा की कसम खाई है। भूपन सुकवि कहै सुनो नवरंगजेब एते काम कीन्हें फेरि पादसाही पाई है ॥ १४ ॥ हाथ तसबीह लिए प्रात उठि बंदगी को आपही कपट रूप कपट सु जप के । आगरे में जाय दारां चौक में चुनाय लीन्हों छत्र ही छिनायो मनो बूढ़े मरे वप के ॥ कीन्हो है सगोत घात सो मैं नाहिं कहौ फेरि पील पै तोरायो" चारि चुगुल के गप के। भूपन भनत छरछंदी मतिमंद महा सौ सौ चूहे खाय के विलारी वैठी तप के ।। १५ ।। १ ऊँचा। पूज्य । किवलागाही। २ मेहरवानी भी। ३ दगाबानी। ४ नपने को मुसल्मानी माला । ५ हाथो से मरवा डाला। ६ गप्प मारने से, झूठ बोलने से।