पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२५३

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[ १६२ ] रज' बंदीभूत हठधर नंदी भूतपति भो अनंदी अनुमान तें। रंकीभूत दुवन करंकीभूत दिगदंती पंकीभूत समुद सुलंकी के पयान तें ॥२॥. सांगनिसों पेलि पेलि खग्गन सों खेलि खेलि समद्"सो जीत्यो जो समद लौ वखाना है। भूपन बुंदेला मनि चम्पति सपूत धनि, जाकी धाक वचा एक मरद मियाँ नाई है। जंगल के वल सों उदंगल प्रवल लूटा अहमद अमीखाँ का कटक खजानां है । बीर- रस मत्ता जाते काँपत चकत्ता पारौ कत्ता ऐसा बाँधिये जो छत्ता' वॉधि जाना है ॥३॥ १ राज्य श्री। २ कलंकी; दिग्गन श्वेत वर्ण थे; तो इस रज से आच्छादित होने से वे मैले हो गए और इसी कारण कलंको कहे गए। ३ चहला (कोत्र ) से भरा हुआ। ४ अनुप्राव । पँवार आदि नो चार अग्निकुल के क्षत्री हैं, उनमें एक सुलंकी भी हैं । दवेले नुलंकी क्षत्रियों में हैं। वघेलखंड के अतिरिक्ष ये लोग गुजरात में भी राज्य करते थे । इनके राज्य अब भी बहुत से हैं जिनमें रीवा प्रधान है। मेवार में भी इनकी एक शाखा है जिनको सोलह उपशाखाएँ हैं। यह छंद हृदयराम भृत रुद्र के विषय में हो सकता है । शि० भ० छंद नं० २८ का नोट देखिये। ५ वह मन्दुल समद मोता नितका यश समुद्र तक पहुंचा हुआ है। ६ एक भी वहादुर मियाँ (बड़े भादमी का वेग )न बचा। ७ उद्दण्ड; उच्→खल। छत्रसाल।