[ ४३ ] सान उठाओगे। इस बात पर चंपतिराय को बड़ा क्रोध चढ़ा और ये महाराज मुग़लों से लड़ने लगे। मुग़लों के आक्रमण से चंपति को सब राजपाट छोड़कर भागना पड़ा। ये अपनी बहिन के यहाँ बीमारी की दशा में गए, परंतु जब ज्ञात हुआ कि बहिन के नौकर इन्हें पकड़कर मुग़लों के यहाँ भेजा चाहते हैं, तब सन् १६६४ ई० में आप ने आत्महत्या कर ली। इसी समय से छत्रसाल को पिता का बदला लेने और खोया हुआ राज्य फिर प्राप्त करने की प्रबल इच्छा हुई । पहले इन्होंने जयसिंह के नीचे मुग़लों की सेवा कर ली और देवगढ़ के घेरा करने में ये बड़ी बहादुरी से घायल हुए पर अच्छा सम्मान न होने से इन्होंने सेवा छोड़कर शिवाजी से मिलना निश्चय किया, क्योंकि इनकी समझ में मुग़लों से “ऐंड एक शिवराज निवाही । करै आपने चित की चाही ।। आठ पातसाही झकझोरै । सूवन बाँधि दंड लै छोरै" ।। (लालकृत छत्रप्रकाश). इन्होंने शिवाजी से मिलकर अपना सब हाल कहा तो, "सिवा किसा सुनि के कही तुम छत्री सिरताज । "जीति आपनी भूमि को करौ देस को राज || "करौ देस को राज छतारे । हम तुमतें कवहूँ नहिं न्यारे । "तुरकन की परतीति न मानौ । तुम के हरि तुरकन गजजानौ। "हम तुरकन पर कसी कृपानी । मारि करेंगे कीचक घानी ।। "तुमहूँ जाय देस दल जोरौ । तुरुक मारि तरवारिन तोरौ ॥
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