पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/६२

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[ ५३ ] - भूपणजी ने युद्ध-प्रधान ग्रंथ होने के कारण इसमें श्री भग- वतीजी की एक बड़े ही प्रभावोत्पादक छंद द्वारा स्तुति की है। इस ग्रंथ में कवि ने अधिकांश अलंकारों के लक्षण और उदा- हरण दिए हैं और उदाहरणों में विशेषता यह रक्खी है कि प्रत्येक में शिवाजी का यश वर्णित है। इनके पहले किसी कवि ने अपने नायक के ही यशवर्णन में कोई ऐसा ग्रंथ नहीं रचा । ग्रंथ के आरंभ में रायगढ़ का बड़ा ही मनोहर वर्णन है; और अलंकार का बंधन रखकर भी भूपणजी शिवराज के यशवर्णन और तत्कालीन मनुष्यों के वास्तविक भावों के चित्र खींचने में पूर्णतया कृतकार्य हुए हैं। अलंकारों के उदाहरण भी इनके स्पष्ट हैं और एक ही छंद में कभी कभी दो चार वार तक उसी अलंकार के उदाहरण आते हैं। भूपणजी प्रायः सभी अलंकार इस ग्रंथ में लाए हैं, केवल निम्न लिखित छूट ___ धर्म लुप्त से इतर लुप्तोपमा, तद्रूप रूपक, संबंधातिशयोक्ति, पदावृत्ति एवं अर्थावृत्ति दीपक, असदर्थ एवं सदर्थ निदर्शना, समव्यतिरेक, न्यूनव्यतिरेक, प्रस्तुतांकुर, द्वितीय पर्यायोक्ति, निपेधाभास, व्यक्ताच्छेप, तृतीय विपम, द्वितीय एवं तृतीय सम, प्रथम अधिक, अल्प, द्वितीय तथा तृतीय विशेप, द्वितीय व्या- घात, कारक दीपक, द्वितीय अर्थान्तरन्यास, विकस्वर, ललित, प्रथम एवं तृतीय प्रहर्पण, मुद्रा, रत्नावली, गूढोत्तर, सूक्ष्म, गढ़ोक्ति, विवृतोक्ति, युक्ति और प्रतिषेध। ..