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भ्रमरगीत-सार
 

निगमध्यान मुनिज्ञान अगोचर, ते भए घोषनिवासी।
ता ऊपर अब साँच कहो धौं मुक्ति कौन की दासी?
जोग-कथा, पा लागों[१] उधो, ना कहु बारंबार।
सूर स्याम तजि और भजै जो तानी जननी छार[२]॥२८॥


राग कान्हरो
पूरनता इन नयन न पूरी।

तुम जो कहत स्रवननि सुनि समुझत, ये याही दुख मरति बिसूरी[३]
हरि अंतर्यामी सब जानत बुद्धि बिचारत बचन समूरी[४]
वै रस रूप रतन सागर निधि क्यों मनि पाय खवावत धूरी[५]
रहु रे कुटिल, चपल, मधुलंपट, कितव[६] सँदेस कहत कटु कूरी[७]
कहँ मुनिध्यान कहाँ ब्रजयुवती! कैसे जात कुलिस करि चूरी।
देखु प्रगट सरिता, सागर, सर सीतल सुभग स्वाद रुचि रूरी[८]
सूर स्वातिजल बसै जिय चातक चित लागत सब झूरी[९]॥२९॥


राग धनाश्री
हमतें हरि कबहूँ न उदास।

राति-खवाय पिवाय अधररस सो क्यों बिसरत ब्रज को वास॥
तुमसों प्रेमकथा को कहिबो मनहुँ काटिबो घास।
बहिरो तान-स्वाद कह जानै, गूँगो बात-मिठास॥
सुनु री सखी, बहुरि फिरि ऐहैं वे सुख बिबिध विलास।
सूरदास ऊधो अब हमको भयो तेरहों मास[१०]॥३०॥


  1. पा लागों=पैर पड़ती हूँ।
  2. छार=भस्म, राख, मिट्टी।
  3. बिसूरी=बिलखकर।
  4. समूरी=जल मूल से।
  5. धूरी=धूल।
  6. कितव=धूर्त, छली।
  7. कूरी=क्रूर, निष्ठुर।
  8. रूरी=अच्छी।
  9. झूरी=नीरस।
  10. तेरहों मास भयो=अवधि बीत गई, बहुत दिन हो गए।