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भ्रमरगीत-सार
पूरनता इन नयन न पूरी।
तुम जो कहत स्रवननि सुनि समुझत, ये याही दुख मरति बिसूरी[३]।
हरि अंतर्यामी सब जानत बुद्धि बिचारत बचन समूरी[४]।
वै रस रूप रतन सागर निधि क्यों मनि पाय खवावत धूरी[५]।
रहु रे कुटिल, चपल, मधुलंपट, कितव[६] सँदेस कहत कटु कूरी[७]।
कहँ मुनिध्यान कहाँ ब्रजयुवती! कैसे जात कुलिस करि चूरी।
देखु प्रगट सरिता, सागर, सर सीतल सुभग स्वाद रुचि रूरी[८]।
सूर स्वातिजल बसै जिय चातक चित लागत सब झूरी[९]॥२९॥
हमतें हरि कबहूँ न उदास।
राति-खवाय पिवाय अधररस सो क्यों बिसरत ब्रज को वास॥
तुमसों प्रेमकथा को कहिबो मनहुँ काटिबो घास।
बहिरो तान-स्वाद कह जानै, गूँगो बात-मिठास॥
सुनु री सखी, बहुरि फिरि ऐहैं वे सुख बिबिध विलास।
सूरदास ऊधो अब हमको भयो तेरहों मास[१०]॥३०॥