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भ्रमरगीत-सार
मोहिं अलि दुहूं भाँति फल होत।
तब रस-अधर लेति मुरली, अब भई कूबरी सौत॥
तुम जो जोगमत सिखवन आए भस्म चढ़ावन अँग।
इन बिरहिन में कहुँ कोउ देखी सुमन गुहाये मंग[५]?
कानन मुद्रा पहिरि मेखली धरे जटा आधारी।
यहाँ तरल तरिवन कहँ देखे अरु तनसुख[६] की सारी॥
परम बियोगिनि रटति रैन दिन धरि मनमोहन-ध्यान।
तुम तो चलो वेगि मधुबन को जहाँ जोग को ज्ञान॥
निसिदिन जीजतु है या ब्रज में देखि मनोहर रूप।
सूर जोग लै घर घर डोलौ, लेहु लेहु धरि सूप॥५८॥