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भ्रमरगीत-सार
२८
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी?
कैसो बरन भेस है कैसो केहि रस में अभिलासी॥
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे! कहैगो गाँसी[१]।
सुनत मौन ह्वै रह्यो ठग्यो सो सूर सबै मति नासी॥६४॥
नाहिंन रह्यो मन में ठौर।
नंदनंदन अछत, कैसे आनिए उर और?
चलत, चितवत, दिवस जागत, सपन सोवत राति।
हृदय तें वह स्याम मूरति छन न इत उत जाति॥
कहत कथा अनेक ऊधो लोक-लाभ दिखाय।
कहा करौं तन प्रेम-पूरन घट न सिंधु समाय॥
स्याम गात सरोज-आनन ललित अति मृदु हास।
सूर ऐसे रूप-कारन मरत लोचन प्यास॥६५॥
ब्रजजन सकल स्याम-ब्रतधारी॥
बिन गोपाल और नहिं जानत आन कहैं व्यभिचारी॥
जोग-मोट सिर बोझ आनि कै कत तुम घोष उतारी?
इतनी दूरि जाहु चलि कासी जहाँ बिकति है प्यारी[२]॥
यह सँदेस नहिं सुन तिहारो, है मण्डली अनन्य हमारी।
जो रसरीति करी हरि हमसों सो कत जात बिसारी?
महामुक्ति कोऊ नहिं बूझै, जदपि पदारथ चारी।
सूरदास स्वामी मनमोहन मूरति की बलिहारी॥६६॥