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भ्रमरगीत-सार
 


राग सारंग
बिन गोपाल बैरिन भइँ कुंजैं।

तब ये लता-लगति अति सीतल, अब भइँ विषम ज्वाल की पुंजैं॥
बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलैं, अलि गुंजैं।
पवन पानि घनसार सँजीवनि दधिसुत[१] किरन भानु भइँ भुंजैं[२]
ए, ऊधो, कहियो माधव सों बिरह कदन[३] करि मारत लुंजैं।
सूरदास प्रभु को मग जोवत अँखियाँ भईं बरन[४] ज्यों गुंजैं॥८५॥


राग नट
सँदेसो कैसे कै अब कहौं?

इन नैनन्ह या तन को पहरो कब लौं देति रहौं?
जो कछु बिचार होय उर-अंतर रचि पचि सोचि गहौं।
मुख आनत, ऊधो-तन चितवत न सो बिचार, न हौं[५]
अब सोई सिख देहु, सयानी! जाते सखहिं लहौं।
सूरदास प्रभु के सेवक सों विनती कै निबहौं॥८६॥


राग कान्हरो
बहुरो ब्रज वह बात न चाली।

वह जो एक बार ऊधो-कर कमलनयन पाती दै घाली॥
पथिक! तिहारे पा लागति हौं मथुरा जाव जहाँ बनमाली।
करियो प्रगट पुकार द्वार ह्वै 'कालिंदी फिरि आयो काली[६]'॥


  1. दधिसुत=उदधिसुत, चंद्रमा।
  2. भुंजैं=भूनती हैं।
  3. कदन=छुरी।
  4. बरन=वर्ण, रंग।
  5. न सो...न हौं=न वह विचार रह जाता
    है और न मैं, अर्थात् सब सुधबुध भूल जाती है।
  6. काली=काली नाग।