यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३७
भ्रमरगीत-सार
बिन गोपाल बैरिन भइँ कुंजैं।
सँदेसो कैसे कै अब कहौं?
इन नैनन्ह या तन को पहरो कब लौं देति रहौं?
जो कछु बिचार होय उर-अंतर रचि पचि सोचि गहौं।
मुख आनत, ऊधो-तन चितवत न सो बिचार, न हौं[५]॥
अब सोई सिख देहु, सयानी! जाते सखहिं लहौं।
सूरदास प्रभु के सेवक सों विनती कै निबहौं॥८६॥
बहुरो ब्रज वह बात न चाली।
वह जो एक बार ऊधो-कर कमलनयन पाती दै घाली॥
पथिक! तिहारे पा लागति हौं मथुरा जाव जहाँ बनमाली।
करियो प्रगट पुकार द्वार ह्वै 'कालिंदी फिरि आयो काली[६]'॥